Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

Previous | Next

Page 447
________________ अष्टसहस्री [ कारिका १६ ३७८ ] विधेयप्रतिषेध्यात्मा विशेष्यः 'शब्दगोचरः । साध्यधर्मो यथा “हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्षया ॥१६॥ विधेयमस्तित्वम् । प्रतिषेध्यं नास्तित्वम् । विधेयं च प्रतिषेध्यं च विधेयप्रतिषेध्ये । ते आत्मानौ स्वभावौ यस्य स विधेयप्रतिषेध्यात्मा, अर्थः सर्वो जीवादिरिति पक्षः । विशेष्यत्वादिति हेतुः, विशेष्य इति10 हेतुनिर्देशात्, गुरवो राजमाषा न भक्षणीया इति यथा । साध्यो' धर्मी, साध्यधर्माधारतया तस्य साध्यव्यपदेशात्, तथोपचारस्य12 दृष्टान्तमिव्यवच्छे कारिकार्थ-- शब्द के विषयभूत विशेष्य-जीवादि समस्त पदार्थ विधि एवं प्रतिषेध इन दोनों धर्मस्वरूप हैं, जैसे कि साध्य का धर्म अपेक्षा से हेतु एवं अहेतु भी होता है ।।१६।। विधेय-अस्तित्व, प्रतिषेध्य-नास्तित्व । विधेय और प्रतिषेध्य हैं स्वरूप जिसके, वह विधेय प्रतिषेध्यात्मक (साध्य धर्म) है। वे ही "सभी जीवादि अर्थ हैं।" यह पक्ष प्रयोग है "विशेष्यत्वात्" यह हेतु निर्देश है । यहाँ कारिका में "विशेष्य" शब्द प्रथमांत होने पर भी हेतु निर्देश है यथा 'गुरवो राजभाषा न भक्षणीया" उड़द नहीं खाने चाहियें क्योंकि वे गुरु–भारी हैं इस वाक्य में "गुरवः" प्रथमांत होने पर भी “गुरुत्वात्" रूप से हेतु निर्देश हो जाता है क्योंकि जैनेन्द्र व्याकरण में सभी विभक्तियाँ हेतु निर्देश में मानी गई हैं। इस कारिका में धर्मी साध्य है, क्योंकि साध्य धर्म का आधार होने से उस धर्मी में साध्यलक्षण धर्म का उपचार किया जाता है। तथा इस उपचार का कारण दृष्टांत धर्मी का व्यवच्छेद करना है। अर्थात् दष्टांतरूप धर्मी किसी भी तरह नहीं माना जाता है। अनुमान प्रयोग काल की अपेक्षा केवल साध्य विशिष्ट धर्मी साध्य मान लिया जाता है। इस साध्यरूप धर्मी के जो उत्पत्तिमत्त्वादि हेतु हैं, वे साध्य के धर्म या विवर्त कहलाते हैं। जिस प्रकार ये साध्य के धर्म-उत्पत्तिमत्त्वादि हेतु अनित्यत्व साध्य की अपेक्षा हेतु हैं उसी प्रकार से ये नित्यत्व साध्य की अपेक्षा अहेतु हैं। अर्थात् “शब्दोऽनित्यः उत्पत्तिमत्त्वात् कृतकत्वात्" इस 1 जीवादिधर्मी । (ब्या० प्र०) 2 यसः । (ब्या० प्र०) विशेषणमिदम् । (दि० प्र०) 3 प्रथमान्तोयं हेतुर्यत इत्युक्ते विशेष्यत्वादिति ज्ञेयम् यथा गुरबो राजमाषान भक्षणीयाऽत्र गुरुत्वादिति प्रथमा ज्ञेया। (दि० प्र०) 4 अयमपि प्रथमान्तो हेतुर्यथा जीवादिविशेष्यः शब्दगोचरत्वादिति । (दि० प्र०) 5 उत्पत्तिमत्त्वादिदृष्टान्तः । (दि० प्र०) 6 दृष्टान्तद्वयमन्वयव्यतिरेकरूपम् । (दि० प्र०) 7 नित्यानित्ययोरसाध्यसाध्यापेक्षयाऽहेतुर्हेतुरुत्पत्तिमत्त्वादिर्यथा तथायं जीवादिरस्तित्वनास्तित्वयुक्त: । (दि० प्र०) 8 प्रकृतास्तित्वनास्तित्वे आदिशब्देन गृहीते प्रतिपत्तव्ये । (दि० प्र०) 9 जीवादेः । (ब्या० प्र०) 10 विधेयप्रतिषेध्यात्माख्यसाध्याभावे विशेष्यत्वाख्यसाधनं न संभवत्येव । तथाहि प्रतिषेद्धय कान्ते तावत्स्वरूपाभावः ततश्च कथं विशेष्यत्वं विधेयकान्ते तु स्वरूपेणेव पररूपेणापि विशेष्यत्वप्रसंगेन विशेषणस्यैव संभवात् कुतो विशेष्यत्वम् । (दि० प्र०) 11 कारिका परार्थं व्याख्याति साध्य इति । (दि० प्र०) 12 संज्ञा घटते। (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494