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अष्टसहस्री
३८६ ]
[ कारिका १६ वस्तुस्वरूपस्यानभिलाप्यत्वव्युदासः' । यद्वा वस्तु तत्सर्वं विधेयप्रतिषेध्यात्मकं, यथोत्पत्त्यादिरपेक्षया हेतुरहेतुश्च साध्येतरयोः, तथा च विमत्यधिकरणं सत्त्वाभिधेयत्वादि । इत्यन्तदीपक सर्वत्र योज्यं साधनं वस्तु च जीवादि । तस्माद्विधेयप्रतिषेध्यात्मकम् । इति" क्रमापितसदसत्त्वोभयात्मकत्वसाधनम् ।
शेषभङ्गाः कथं नेतव्याः सूरिभिरित्याहः :--
अथवा जो वस्तु है वह सभी विधेय-प्रतिषेध्यात्मक ही है जैसे कि अपेक्षा से उत्पत्तिमत्वादि साध्य और असाध्य में हेतु एवं अहेतु दोनों रूप हैं और उसी प्रकार से विवादापन्न सत्त्व-वाच्यत्वादि हैं। इस प्रकार अन्त्यदीपक न्याय सभी जगह लगाना चाहिये क्योंकि हेतु और जीवादिवस्तु हैं वे इसीलिये विधय-प्रतिषेध्यात्मक हैं। इस प्रकार क्रम से अर्पित सत्, असत् और उभयात्मक को सिद्ध किया गया है।
भावार्थ-आचार्यों ने प्रत्येक वस्तु को विधि-प्रतिषेध इन उभय धर्मात्मक सिद्ध करने के लिए इन तीन कारिकाओं में विशेष प्रयत्न किया है एवं वादी और प्रतिवादी दोनों को मान्य ऐसे 'हेत' को उदाहरण में रखकर उसे कथंचित् स्वसाध्य की अपेक्षा से हेतु एवं परसाध्य की अपेक्षा से अहेतु सिद्ध किया है। इसलिये प्रत्येक वस्तु स्वपर की अपेक्षा से परस्पर विरोधी उभय धर्मों को लिये हुये उभयात्मक है, फिर भी विरोध आदि दोष नहीं आते हैं।
उत्थानिका-आचार्यों ने शेष भंग कैसे समझाये हैं, ऐसा प्रशन होने पर श्री समंतभद्र आचार्यवर्य निरूपण करते हैं
1 विवादापन्नं सत्त्वाभिधेयत्वादि स्वरूपं जीवादिवस्तुपक्षः । विशेष्यं भवतीति साध्यो धर्मः । अभिधेयत्वात् । यदभिधेयं तद्विशेष्यं यथोत्पत्त्यादिः । अपेक्षया हेतुरहेतुश्च साध्येतरयोरभिधेयं चेदं तस्मात्साध्यसाधनधर्मविशेषणापेक्षया विशेष्यम् । इत्यनुमानादेकस्य वस्तुनः विशेषणविशेष्यात्मकत्वविरोधनिरास: कृतः ॥१॥ अस्तित्वादि वस्तुस्वरूपं पक्षोऽभिलाप्यं भवतीति साध्यो धर्म: विशेष्यत्वात् । यद्विशेष्यं तदभिलाप्यं यथोत्पत्त्यादि पूर्ववद्विशेष्यं चेदं तस्मादभिलाप्यम् । इत्यनुमानाद्वस्तुस्वरूपस्यानभिलाप्यत्वव्यदासः ।।२।। सत्त्वाभिधेयत्वादिपक्षः विधेयप्रतिषेध्यात्मक भवतीति साध्यो धर्मः वस्तुत्वात् । यद्वस्तु तत्सर्वं विधेयप्रतिषेध्यात्मकं भवति यथोत्पत्त्यादिः वस्तु चेदं तस्माद्विधेय. प्रतिषेधात्मकं भवतीति क्रमापितसदसत्त्वोभयात्मकत्वसाधनम् । तृतीयानुमानम् । (दि० प्र०) 2 विवादापन्नम् । (दि० प्र०) 3 अस्तित्वम् । (दि० प्र०) 4 दृष्टान्तहेतुरूपसंहारमिवचनरूपं विवक्षितसाध्यसाधकत्वात् साधनम् । (दि० प्र०) 5 इदं भाष्योक्तादिशब्दलभ्यम् । (दि० प्र०) 6 एवं तृतीयानुमानेन । (दि० प्र०) 7 सदसत्त्वे एवोभयं तदेवात्मास्वरूपं यस्य तस्य । (दि० प्र०)
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