Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 456
________________ अस्तिनास्ति का स्वरूप ] प्रथम परिच्छेद शेषभङ्गाश्च' यथोक्तनययोगतः । न च कश्चिद्विरोधोस्ति मुनीन्द्र ! तव शासने ॥२०॥ नेतव्या स्यादस्ति स्यान्नास्तीति भङ्गद्वयमुपयुक्तम् । तदपेक्षया शेषत्वं भङ्गत्रयापेक्षं वा । विधेयप्रतिषेध्यात्मेत्यनेन ' तृतीयभङ्गस्य स्वप्रतिषेध्येनाविनाभाविनोऽसाधने' साधने चापेक्ष्यमाणे इत्यर्थः । यथोक्तनययोगत' इति विशेषणत्वादीनाक्षिपति । तदनभिलाप्यादयोपि क्वचिद्धमणि प्रत्यनीकस्वभावाविनाभाविनः प्रतीयन्ते, विशेषणत्वादिभ्यः । पूर्वोक्तमुदाहरणम् । [ ३८७ कारिकार्थ - यथोक्त नयों की अपेक्षा से शेष भंग भी लगा लेना चाहिये । अतएव हे मुनीन्द्र ! आपके शासन में कुछ भी विरोध नहीं है ||२०|| स्यादस्ति, स्यान्नास्ति ये दो भंग उपयुक्त हैं, उन्हीं दो की अपेक्षा 'शेष' शब्द है अथवा भंगत्रय की अपेक्षा से 'शेष' शब्द है । Jain Education International "विधेयप्रतिषेध्यात्मा" इस कथन से तृतीय भंग अपने प्रतिषेध्य के साथ अविनाभावी है । इस तृतीयभंग को सिद्ध करने की अपेक्षा न रखने पर तृतीय आदि भंग शेष कहलाते हैं एवं इस विधेयप्रतिषेध्यात्मक' को तृतीय भंग सिद्ध समझने की अपेक्षा रखने पर चतुर्थ आदि भंग शेष कहलाते हैं । ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये । "यथोक्तनययोगतः " यह कथन 'विशेषणत्वात्, विशेष्यत्वात्, अभिलाप्यत्वात् वस्तुत्वात्' इत्यादि हेतुओं का आकर्षण करता है । इसलिये वे अनभिलाप्य आदि - अवक्तव्य आदि धर्म भी किसी धर्मी जीवादि में अपने विरुद्धस्वभाव से अविनाभावी ही प्रतीति में आ रहे हैं क्योंकि वे विशेषण आदि हैं । यहाँ पर उदाहरण तो पूर्वोक्त ही लेना । अर्थात् यथा साधर्म्य वैधर्म्य से अविनाभावी है और वैधयं साधर्म्य से अविनाभावी है ये ही उदाहरण यहाँ ग्रहण करना है । 1 तृतीयभंगस्य प्रथमद्वितीयभंगरूपेण सहाविनाभाविनो: साधनेऽपेक्षमाणे तृतीयादिभंगस्य शेषत्वं साधनेऽपेक्षमाणे चतुर्थादिभंगस्य शेषत्वमिति भावः । तृतीयादयश्चतुर्थादयो वा शेषा भंगा: । (दि० प्र०) 2 पूर्वोक्त । हेतूदाहरणरूपनययोगत: । ( व्या० प्र० ) 3 प्रमाणवाक्ये नयवाक्ये च । ( व्या० प्र० ) 4 इति भंगद्वयं गृहीतम् । भंगद्वयमाश्रित्य सप्तभंगा प्रवर्त्तेरन् । (दि० प्र०) 5 तदपेक्षया भंगद्वयाश्रयणेन । शेषत्वं भंगपञ्चका: भंगत्रयापेक्षं वा शेषत्वं भंगचतुष्कम् | ( दि० प्र० ) 6 विधेयप्रतिषेध्यात्मा इति कारिकाव्याख्यानेन प्रतिषेध्याविनाभाविनः तृतीयभंगस्यासाधनं असाधन आश्रीयमाणे भंगाद्वयापेक्षं शेषत्वं ग्राह्यं साधने वा भंगत्रयापेक्षं शेषत्वं ग्राह्यम् । ( दि० प्र० ) 7 प्रथमद्वितीयभंगरूपेण । ( दि० प्र०) 8 विशेष्यत्व शब्द गोचरत्व वस्तुत्वादिहेतुयोगात् । ( ब्या० प्र० ) 9 स्वीकरोति । ( व्या० प्र०) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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