Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 448
________________ आस्तिनास्ति का स्वरूप ] प्रथम परिच्छेद [ ३७६ दार्थत्वात् । तस्य धर्मो विवर्त' उत्पत्तिमत्त्वादिः । स यथा हेतुरनित्यत्वसाध्यापेक्षया, नित्यत्वसाध्यापेक्षयाऽहेतुश्च', गमकत्वागमकत्वयोगात्, तथा' साध्याविनाभावेतरसद्भावादिति दृष्टान्तः । इत्यनुमानात्त्सत्वेतरात्मकः कथंचिज्जीवाद्यर्थः सिद्धयत्येव । हेतोविशेष्यत्वस्यासिद्धिरिति चेन्न, विशेष्योसौ, 'शब्दगोचरत्वात् तद्वदित्यनुमानात्तस्य' विशेष्यत्वहेतोः साधनात् ! शब्दगोचरत्वमसिद्धमर्थस्येति चेन्न, शब्दगोचरो जीवादिः, विशेष्यत्वात्तद्वदित्यनुमानातस्य साधनात् । न चैवमितरेतराश्रयदोषः, सर्वथानभिलाप्यवस्तुवादिनः प्रति शब्दप्रयोग में जो साध्य के धर्म उत्पत्तिमत्त्वादि हैं वे अनित्य साध्य की अपेक्षा हेतु एवं नित्य साध्य की अपेक्षा अहेतु हैं क्योंकि वे अपने साध्य के गमक एवं अन्य साध्य के अगमक हैं । तथैव साध्य के साथ अविनाभाव और साध्य के साथ अविनाभाव का अभाव इन हेतुओं में इन दोनों का सद्भाव है, इस प्रकार दृष्टांत कथन है, इस अनुमान से “जीवादि पदार्थ कथंचित् सत्त्वासत्त्वात्मक सिद्ध ही हो जाते हैं।" अर्थात् कथंचित् सभी जीवादि पदार्थ विधि-प्रतिषेधात्मक हैं, क्योंकि वे विशेष्य हैं, जैसे कृतकत्वादि हेतु । यथा अनित्य साध्य की अपेक्षा से कृतकत्वादि हेतु हैं, वैसे ही नित्यत्व साध्य की अपेक्षा वे हेतु अहेतु हैं । इस अनुमान से सभी वस्तु विधि प्रतिषेध्यात्मक ही हैं। शंका-विशेष्यत्व को हेतु बनाने में असिद्ध दोष आता है। समाधान-ऐसा नहीं कह सकते। वह हेतु विशेष्य है, क्योंकि वह शब्द का गोचर है, हेतु के समान । इस अनुमान से उस विशेष्य हेतु को सिद्ध किया जाता है। शंका-जीवादि पदार्थ को शब्द के गोचर कहना भी असिद्ध है। समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है । “जीवादि पदार्थ शब्द के गोचर हैं, क्योंकि वे विशेष्य हैं, हेतु के समान ।" इस अनुमान से उन जीवादि पदार्थों को शब्द के गोचर सिद्ध किया गया है। इस प्रकार से शब्द गोचरत्व सिद्ध करने में विशेष्यत्व को हेतु बनाया है एवं विशेष्यत्व को सिद्ध 1 परिणामित्वम् । (ब्या० प्र०) 2 कुतः । (दि० प्र०) 3 स्वसाध्यः स्वसाध्यापेक्षाप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 4 सर्वो जीवाद्यर्थः पक्ष: विधेयप्रतिषेध्यात्मा भवतीति साध्यो धर्मः विशेष्यत्वात् यो विशेषाः सविधेयप्रतिषेध्यात्माऽपेक्षयाहेतुरहेतु: यथा साध्यधर्मः विशेषश्चायं तस्माद्विधेयप्रतिषेध्यात्मा= द्वितीये सर्वो जीवाद्यर्थ पक्षः विशेष्यो भवतीति साध्यो धर्मः शब्दगोचरत्वाद्धे तुः । तृतीयेऽर्थः पक्ष: शब्दगोचरो भवतीति साध्यो धर्मः विशेष्यत्वात् । चतुर्थेऽर्थः पक्ष: विधेयप्रतिषेध्यात्मा भवतीति साध्यो धर्मः वस्तुत्वात्प्रमेयत्वाद्धेतुः । (दि० प्र०) 5 विशेष्यवाच्यस्य विशेषणं वचो यतो विशेष्यं विनियम्यते च यत् । इति वचनात् शब्दगोचरत्वे विशेष्यत्वं सिद्धमेव । (ब्या० प्र०) 6 पदार्थान्तराद् व्यवच्छेदकशब्द एव विशेषणं तद् तद्विषयं विशेष्यं तस्य व्यवच्छेदकं विशेषणमिति वचनात्तद्गोचरस्य पदार्थस्य विशेष्यत्वं सिद्धयत्येव । (दि० प्र०) 7 यथा साध्य धर्म:=यथा धूमत्वादितिहेतुरग्निमत्वं साध्यं स्वसाध्यं प्रतिसाधनं भवति विपक्षेऽपादो असाधनं भवति । (दि० प्र०) 8 अनेनास्तित्वं नास्तित्वञ्च विशेषणमेव न तु विशेष्यमित्यादिना प्रत्यवस्थिताः प्रत्युक्ताः । (दि० प्र०) 9 सन्प्रमेय इत्यादि शब्दस्याप्यगोचरस्य विशेष्यत्वानुपपत्तिः सिद्धयत्येवासाधनात् । अनेनानभिलाप्यवस्तुवादिना प्रत्युक्ताः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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