________________
नास्तित्व का स्वरूप ]
प्रथम परिच्छेद
[ ३७७
श्रीयते इति बालाभिलापकल्पं भावस्वभावोपरोधात्सर्वत्र' भेदाभेदव्यवस्थितेः, अन्यथा ततस्तत्त्वप्रतिपत्तेरयोगात् ।
ननु चास्तित्वं नास्तित्वं च विशेषणमेव, न तु विशेष्यम्' । ततो न साध्यसाधनधर्मयो: ' परमार्थसतोरधिकरणं येन प्रकृतमनुमानद्वितयं वास्तव' धर्मधर्मिन्यायेन स्यादित्येके । न तत्सर्वथाभिलाप्यं, वस्तुरूपस्यानभिलाप्यत्वादिति चान्ये ' । जीवादेर्वस्तुनोत्यन्तमर्थान्तरमेव तत् प्रतिभासभेदाद्घटपटवत् । न पुनरस्तित्वनास्तित्वात्मकं वस्तु, धर्मधर्मिसंकरप्रसङ्गादिति चापरे' । तान्प्रत्याचार्याः प्राहुः ।
लोग प्रतीति के निमित्त से तत्व साध्य की प्रतिपत्ति के लिये भेदाभेद व्यवस्था का आश्रय लेते हैं ।"
जैन - आप बौद्धों का हम जैनों के प्रति यह आक्षेप बालकों के यद्वा तद्वा जल्प के समान ही है, क्योंकि भाव- पदार्थों का स्वभाव भेदाभेद लक्षणरूप ही है, अतः उसके उपरोध- स्वीकृति से ही सभी पदार्थों में भेदाभेद की व्यवस्था है ।
अन्यथा - यदि भावस्वभाव के निमित्त से भेद - अभेद की व्यवस्था नहीं मानेंगे, तब तो उस भेदाभेद की व्यवस्था से तत्त्व का ज्ञान भी नहीं हो सकेगा । अर्थात् पदार्थों में भेद और अभेद की व्यवस्था स्वाभाविक और वास्तविक ही है, उसी से वास्तविक तत्त्वों का ज्ञान होता है ।
परमार्थ सत्रूप साध्य और साधन के अधिकरण नहीं हो सकते हैं, दिए गये दोनों अनुमान अस्तित्व और नास्तित्वरूप धर्म तथा जीवादि के न्याय से वास्तविक होवें अर्थात् वास्तविक नहीं हो सकते ऐसा सौगत कहते हैं ।
उत्थानिका - अस्तित्व और नास्तित्व विशेषण ही हैं विशेष्य नहीं हैं । इसलिये वे दोनों जिससे कि प्रकृत दो कारिका में धर्मो इन दोनों रूप धर्म-धर्मी
वे अस्तित्व और नास्तित्व सर्वथा ही अभिलाप्य- - शब्द से कहे जाने योग्य नहीं हैं क्योंकि वस्तु का स्वरूप अनभिलाप्य - अवाच्य ही है, इस प्रकार से अन्य कोई सौगत कह रहे हैं ।
वे अस्तित्व और नास्तित्व जीवादिवस्तु से अत्यन्त भिन्न ही हैं, क्योंकि उनका प्रतिभास भेद पाया जाता है, जैसे कि घट-पट आदि भिन्न २ हैं । अतएव वस्तु अस्तित्व नास्तित्वस्वरूप नहीं है, अन्यथा धर्म और धर्मी में संकर दोष का प्रसंग आ जावेगा ऐसा भी कोई-कोई ( योगादि ) कहते हैं । उन सभी एकांतवादियों के प्रति श्री स्वामिसमंतभद्राचार्यवर्य कहते हैं ।
1 जैनादिकं प्रति सौगतीयं वचः । ( दि० प्र० ) 2 सौगत: । ( दि० प्र० ) 3 अर्थे । ( व्या० प्र० ) 4 क्षणिकरूपयोः । वादिधर्मी नास्ति । ( दि० प्र० ) 5 पारमार्थिकम् । ( दि० प्र० ) 6 सौगता: । ( दि० प्र० ) 7 जटिला: । ( ब्या० प्र० ) स्वरूपस्यावाच्यत्वाद्वस्तुनोनभिलाप्यत्वमेव = अस्तित्वनास्तित्वात्मकं वस्तु भवति चेत्तदाधर्मधर्मिणोरैक्यं भवति । ( दि० प्र०) 8 वादिन: । ( दि० प्र०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org