Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 444
________________ नास्तित्व का स्वरूप ] प्रथम परिच्छेद [ ३७५ मभेदविवक्षया हेतो, तथा' च नास्तित्वं विशेषणमित्यनुमानं, साध्यसद्भावे' एव साधनस्य सद्भावनिश्चयात्, [ वस्तुन्यस्तित्वधर्म एव वास्तविको न च नास्तित्वधर्म इति मन्यमाने दोषानाहुराचार्याः ] अन्यथा व्यवहारसंकरप्रसङ्गात्, करभत्वस्य करभवद्दधन्यपि सद्भावानुषङ्गात् दधित्वस्य च दध्नीव करभेपि' प्रसक्तेः । दधि खादेति चोदितः करभमभिधावेत् करभवद्वा दध्न्यपि नाभिधावे', अदधित्वस्याकरभत्वस्य च क्वचिदप्यभावात् । इति प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणो प्रतिपक्ष धर्म के साथ अविनाभावी हैं जैसे हेतु में अभेदविवक्षा से वैधर्म्य अविनाभावी है। और उसी प्रकार से नास्तित्व विशेषण अस्तित्व के साथ अभिनाभावी है। यह अनुमान वाक्य है, क्योंकि साध्य के सद्भाव (अस्तित्व के सद्भाव) में ही साधन (हेतु का नास्तित्व विशेषण ) का सद्भाव निश्चित है। _[वस्तु में अस्तित्व धर्म भी वास्तविक है किन्तु नास्तित्व धर्म वास्तविक नहीं है, ऐसा मानने पर आचार्य दोष दिखाते हैं] अन्यथा-साध्य के अभाव में भी यदि साधन का सद्भाव-अस्तित्व के अभाव में भी यदि विशेषण का सद्भाव स्वीकार करेंगे, तब तो व्यवहार में संकर दोष का प्रसंग आ जावेगा। उसी का समर्थन करते हैं करभपना (ऊँटपना) जो विशेषण हैं वह करभ में रहने के सामान दही में भी हो जावेगा और जो दधिपना है वह दही में रहने के समान ऊँट में भी हो जावेगा और तब तो यदि किसी ने किसी को कहा कि “दधि खाद" दही खावो इतना सुनते ही वह ऊँट की तरफ दौड़ पड़ेगा। अथवा ऊँट की तरफ नहीं जाने के समान ही दधि की तरफ भी नहीं जावेगा, क्योंकि उन ऊँट अथवा दही में अदहीपने का और अकरभपने का अभाव ही है। अर्थात् यदि दही में ऊँट की अपेक्षा नास्तित्व धर्म नहीं है, तब तो दही जिस प्रकार दही रूप से विद्यमान है, उसी प्रकार ऊँटरूप का और अन्य सभीरूप का उसमें अस्तित्व आ धमकेगा। तब तो "दधि खाद" सुनते ही कोई ऊँट की तरफ भी दौड़ पड़ेगा। एवं इस प्रकार का प्रवृत्ति निवृत्ति लक्षण व्यवहार ही संकर-मिश्रितरूप हो जावेगा, क्योंकि सभी वस्तुओं में सर्वथा सभी धर्मों का सद्भाव हो जावेगा। यदि आप कहें कि दही में स्वरूप से दहीपना है, न कि ऊँटरूप से । एवं ऊँट से स्वरूप से ऊँटपना है न कि दहीरूप से, जिससे कि प्रवृत्ति आदि व्यवहार में संकर का प्रसंग आवे । अर्थात् व्यवहार में संकर नहीं हो सकता है, इस मान्यता 1 वैधर्म्यप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 2 अस्तित्वाभावेपि विशेषणं यदि साध्याभावे साधनस्य सद्भाव निश्चयो यदि वा। (दि० प्र०) 3 दधित्वस्य । प्रसजति । (दि० प्र०) 4 सन्मुखं गच्छेत् । (दि० प्र०) 5 कुतः। (दि० प्र०) 6 करभत्वस्येत्यर्थः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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