Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 443
________________ ३७४ ] अष्टसहस्री [ कारिका १८ भावात्, तथा तस्य विशेषणत्वानुपपत्तेरित्यसिद्धविरुद्धानकान्तिकत्वदोषाभावात्, दृष्टान्तस्य च' साध्यसाधनवैकल्यादिदोषासंभवात्', साधर्म्यस्येव हेतौ भेदविवक्षया, वैधर्म्यस्याभेदविवक्षयाऽविनाभावित्वनिश्चयात्, तत्र' भेदविवक्षावदभेदविवक्षायाः परमार्थसद्वस्तुनिबन्धनत्वात् । [ भेदाभेदविवक्षे अवस्तुनिमित्तके इति मन्यमाने दोषानारोपयंति जनाचार्याः ] भेदाभेदविवक्षयोरवस्तुनिबन्धनत्वे विपर्यासोपि किं न स्यात् ? 'शब्दानित्यत्वसाधने कृतकत्वादिहेतौ घटादिभिर्भेदविवक्षा गगनादिभिरभेदविवक्षा हि विपर्यासः । स च परैर्नेष्यते एव । तदिष्टौं' शब्दनित्यत्वसाधनाद्धेतोविपर्यासः स्यात्, विरुद्धत्वोपपत्तेः । सोयं कृतकत्वादेः साधनस्याविरुद्धत्वम्पयंस्तत्र' भेदाभेदविवक्षयोविपक्षेतरापेक्षयोर्वस्तुनिबन्धनत्वमुपगन्तुमर्हति । ततः समञ्जसमेतत्, यत्किञ्चिद्विशेषण तत्सर्वमेकत्र प्रतिपक्षधर्माविनाभावि यथा वैधर्म्य उसमें भेद विवक्षावत् (व्यतिरेक-दृष्टांत के समान) अभेदअन्वय-विवक्षा भी परमार्थ सत् है, क्योंकि वह विवक्षा वस्तु के निमित्त से ही होती है । [भेदविवक्षा और अभेदविवक्षा अवस्तु निमित्तक हैं, ऐसा मानने पर जैनाचार्य दोष दिखाते हैं ] यदि आप बौद्ध भेदाभेद विवक्षा को अवस्तुनिमित्तक स्वीकार करेंगे, तब तो विपर्यास भी क्यों नहीं स्वीकार कर लेते ? उसी विपर्यास का स्पष्टीकरण करते हैं शब्दादि को अनित्य सिद्ध करने में कृतकत्वादि हेतु में घटादि से व्यतिरेकविवक्षा एवं गगनादि से अन्वयविवक्षा ही विपर्यास कहलाता है। इस विपर्यास को आप सौगत स्वीकार ही नहीं करते हैं। __ यदि आप उसे स्वीकार कर लेंगे, तब तो वह हेतु शब्द को नित्य ही सिद्ध कर देगा। पुनः आपके लिये यह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास बन जावेगा, क्योंकि आपने शब्द को नित्य माना ही नहीं है और यदि आप कृतकृत्त्व आदि हेतु को विरुद्ध दोष से रहित अविरुद्ध स्वीकार करेंगे, तब तो उस हेतु में विपक्ष की अपेक्षा से व्यतिरेकविवक्षा एवं सपक्ष की अपेक्षा से अन्वयविवक्षा वस्तु निमित्तक हैंवास्तविक हैं ऐसा स्वीकार करना हो योग्य है। इसीलिये यह समञ्जस ही है - ठीक ही है कि जो कुछ भी विशेषण हैं वे सभी एकत्र-जीवादि में 1 कृतकत्वादेहेतोः । (दि० प्र०) 2 हेतोर्वधर्म्य पक्ष: साधर्म्यणाविनाभावि भवति विशेषणत्वादित्यत्र साध्यसाधनवैकल्येन । (दि० प्र०) 3 हेतोः । (दि० प्र०) 4 आशंक्य । (दि० प्र०) 5 कृत्वा । (दि० प्र०) 6 विपर्यासः परैः क्षणिकादिवादिभिर्नाङ्गीक्रियत एव । (दि० प्र०) 7 विपर्यासग्रहणे । (दि० प्र०) 8 सौगतः । (दि० प्र०) 9 अभ्युपगच्छन् । (व्या० प्र०) 10 अन्वयव्यतिरेके । (ब्या० प्र०) 11 तथ्यरूपम् । (ब्या० प्र०) 12 नास्तित्वम् । (ब्या० प्र०) 13 अस्तित्व । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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