Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 449
________________ अष्टसहस्री ३८० ] [ कारिका १६ गोचरत्वे साध्ये विशेष्यत्वस्य हेतुत्ववचनात् सर्वथा वाऽविशेष्यत्ववादिनः प्रति शब्दगोचरत्वस्य साधनत्वाभिधानात् तदुभयासत्त्ववादिनस्तु' प्रति वस्तुत्वस्योभयप्रसिद्धस्य हेतोः सामर्थ्यतः प्रयोगात्' । विधेयप्रतिषेध्यात्मकत्वस्यापि तान्प्रति तत एव सिद्धिः । इति समासतः कारिकार्थः समवतिष्ठते । [ बौद्धो ब्रूते यत् प्रत्यक्षज्ञाने स्वलक्षणमेव प्रतिभासते न पुनरस्तित्वादिविशेषणं तस्य विचार: ] ननु च प्रत्यक्षबुद्ध वस्तु स्वलक्षणमेव प्रतिभाति न पुनरस्तित्वादिविशेषणं, तस्य सकलविकल्प विकलत्वात् विकल्पबुद्धौ तद्व्यवहारप्रसिद्धेरिति चेन्न, वस्तुनोस्तित्वाद्यनेकविकल्पात्मकस्य' सांशस्यैव प्रतीते: 7 । गृह्यमाणं विशेषण किञ्चित्केचिद्विशिष्टं करने में शब्द गोचरत्व को हेतु बनाया है, किन्तु इस प्रकार से इनमें परस्पराश्रय दोष भी नहीं आता है । सर्वथा वस्तु को अनभिलाप्य - अवाच्य मानने वाले बौद्धों के प्रति "जीवादिः शब्दगोचरः विशेष्यत्वात्" इस प्रकार जीवादि को शब्द गोचर सिद्ध करने में “विशेष्यत्व" को हेतु बनाया है अथवा सर्वथा अविशेष्यत्ववादी - शब्दाद्वैतवादी के प्रति "जीवादिविशेष्यः शब्दगोचरत्वात्" इस प्रकार " शब्द गोचरत्व" को हेतु बनाया है । उन दोनों का असत्त्व मानने वाले वादियों के प्रति उभय में प्रसिद्ध ऐसे वस्तुत्व हेतु का प्रयोग किया जाता है । यथा “जीवादिपदार्थः शब्दगोचरो विशेष्यश्च वस्तुत्वात्" और इसी 'वस्तुत्वात्' हेतु से उन उभय के असत्त्व मानने वाले वादियों के प्रति जीवादि पदार्थों में "विधेय प्रतिषेध्यात्मकत्व" की भी सिद्धि कर दी गई है । इस प्रकार संक्षेप से कारिका का अर्थ स्पष्ट किया गया है । [ बौद्ध का कहना है कि प्रत्यक्ष ज्ञान में स्वलक्षण ही झलकता है अस्तित्वादि नहीं उस पर विचार ] बौद्ध-प्र - प्रत्यक्ष बुद्धि में स्वलक्षणरूप ही वस्तु प्रतिभासित होती है न कि पुनः अस्तित्वादि विशेषण क्योंकि वह स्वलक्षण सकल विकल्पों से रहित है तथा सविकल्पात्मक ज्ञान में ही उन अस्तित्वादि को जानने का व्यवहार प्रसिद्ध है । जैन - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अस्तित्वादि अनेक विकल्पात्मक एवं विधिनिषेधादि भेदों से अंश सहित ही प्रतीति में आ रही है । 1 सर्वथाऽनभिलाप्य सर्वथाऽविशेष्यवादिनः प्रति वस्तुत्वादिति हेतुः करणीयः जीवाद्यर्थः पक्षोऽभिलाप्यविशेष्यो भवतीति साध्यो धर्मः वस्तुत्वादिति हेतुर्वादिप्रतिवादिप्रसिद्धः । ( दि० प्र०) 2 अत्रापि यद्वस्तु तद्विशेष्यमिति सिद्धयत्येव वस्तुत्वविशेषणविशिष्टस्य विशेष्यत्वाविरोधात् । यद्वस्तु तदभिधेयमित्यपि न विरुद्धयते । वस्तुशब्देनाभिहितस्याभिधेयत्वसंभवात् । (दि० प्र० ) साध्यस्य । ( दि० प्र०) 4 कस्यापि इति पा० प्रागुक्तस्य । ( दि० प्र० ) 5 निर्वि कल्पक प्रत्यक्षस्य । ( दि० प्र० ) 6 भेद: । ( दि० प्र०) 7 सौगतमतव्यवस्थापनद्वारेण निराकरोति । ( दि० प्र०) 8 जीवादि वस्तु । (दि० प्र० 9 केनचिद्रूपेण विशिष्टं किञ्चिद्गृह्यमानं वस्तुविशेषणादिसंकलनेन गृह्येत । ( दि० प्र०) 3 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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