________________
अस्तित्व का अविनाभावी नास्तित्व ]
प्रथम परिच्छेद
[ ३७३
नुपपत्तेः साध्यसाधनधर्मवैकल्याभावाच्च निदर्शनस्य प्रत्यक्षादिविरोधाभावाच्च पक्षस्येति प्रतिपत्तव्यम् ।
भवतु तावदस्तित्वं जीवादौ नास्तित्वेनाविनाभावि । नास्तित्वं तु कथमस्तित्वाविनाभावि, खपुष्पादौ कथंचिदप्यस्तित्वासंभवादिति मन्यमानान्प्रत्याहुः ।
नास्तित्वं प्रतिषेध्यनाविनाभाव्येकमणि' ।
विशेषणत्वाद्वैधयं यथाऽभेदविवक्षया ॥१८॥ कृतकत्वादौ हेतौ शब्दानित्यत्वादा साधने सधर्मणा साधर्म्यणाविनाभावि विशेषणं विपक्षे वैधर्म्यमुदाहरणं प्रसिद्धं तावत्तज्जीवादावेकर्मिणि पररूपादिभिर्नास्तित्वं स्वरूपादिभिरस्तित्वेनाविनाभावि साधयत्येव, विशेषणत्वसाधनस्यानवद्यत्वात्, पक्षीकृते नास्तित्वे विशेषणत्वस्य भावादस्तित्ववत्, विपक्षे च स्वप्रतिषेध्याविनाभावरहिते क्वचिदप्य
उत्थानिका-जीवादि में अस्तित्व नास्तित्व के साथ अविनाभावी हो जावे, किन्तु नास्तित्व अस्तित्व के साथ अविनाभावी कैसे हो सकता है ? क्योंकि आकाश कमल आदि में किसी भी प्रकार से अस्तित्व असंभव है, ऐसा मानने वालों के प्रति आचार्य कहते हैं
कारिकार्थ-एक धर्मी में नास्तित्व भी अपने प्रतिषेध्य-अस्तित्व के साथ अविनाभावी है, क्योंकि वह विशेषण है, जैसे कि अभेद विवक्षा (अन्वय की अपेक्षा) से किसी अनुमान में वैधर्म्य साधर्म्य के साथ अविनाभावी हैं ॥१८॥
शब्द को अनित्यत्व आदि सिद्ध करने में कृतकत्व आदि हेतु में अपने सपक्षभूत साधर्म्य के साथ अविनाभावी विशेषण सिद्ध है, जो कि विपक्ष-नित्य में वैधर्म्य उदाहरणरूप से प्रसिद्ध है और वह जीवादि एक धर्मी में पररूपादि से नास्तित्व को स्वरूपादि से अस्तित्व के साथ अविनाभावी सिद्ध ही करता है, क्योंकि विशेषण-वधर्म्यरूप साधन निर्दोष है। पक्ष में किये गये नास्तित्व में अस्तित्व के समान यह विशेषण विद्यमान ही है और अपने प्रतिषेध्य-अस्तित्व के साथ अविनाभाव से रहित आकाशकमल में उस विशेषण और हेतु का अभाव है क्योंकि अपने प्रतिषेध्य के साथ अविनाभाव से रहित वह नास्तित्व आकाश पुष्प में विशेषण ही नहीं बन सकता है । ____ इसलिये इस हेतु में असिद्ध, विरुद्ध, अनैकांतिक दोष का अभाव है एवं यह व्यतिरेक लक्षण दृष्टांत भी साध्य-साधन की विकलता आदि दोषों से रहित है। जिस प्रकार हेतु में व्यतिरेक की अपेक्षा से साधर्म्य-अन्वय दृष्टांत विद्यमान है। उसी प्रकार से हेतु में वैधर्म्य भी अभेद विवक्षा से अविनाभावीरूप निश्चित है।
1 जीवादौ । (ब्या० प्र०) 2 व्यतिरेक । (ब्या० प्र०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org