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अष्टसहस्री
[ कारिका १७ भावः । न च 'स्वलक्षणमेवान्यापोहः सर्वथा विधिनियमयोरेकतानत्वासंभवात् । पुष्परहितं खमेव खे पुष्पाभावः, शशादय एव च विषाणरहिताः शशादिषु विषाणाभाव इत्येकविषयौ' खशशादितत्पुष्पविषाणविधिनियमौ संभवत एवेति चेन्न, गगनशशादीनां भावाभावस्वभावभेदाद्विधिनियमोपलब्धेश्च, अन्यथानुभवाभावात् । शब्दविकल्पविशेषात्संकेतविशेषापेक्षादेकत्र विषये विधिनियमयोः संभव इति चेन्न, संकेतविशेषस्य वस्तुस्वभावविशेषनिबन्धनत्वात् ।
स्वलक्षण हो अन्यापोह है ऐसा भी आप नहीं कह सकते हैं क्योंकि सर्वथा विधि और निषेध में एक विषयत्व का विरोध है।
भावार्थ-आकाशादिरूप स्वलक्षण को छोड़कर खपुष्पादि का अभाव देखा ही नहीं जाता है और खपुष्पादि के अभाव का अभाव होने पर उनके प्रमेयपना ही है ऐसी बौद्ध की आशंका होने पर जैनाचार्यों ने उत्तर दिया है ।
बौद्ध- 'पुष्प रहित ही आकाश है' आकाश में पुष्प का अभाव है और खरगोश आदि ही विषाण रहित हैं "खरगोश आदि में विषाण का अभाव है" इस प्रकार से आकाश और खरगोश आदि एवं उनके पुष्प और विषाण आदि की विधि और निषेध का एक विषय सम्भव ही है । अर्थात् आकाश और खरगोश की विधि एवं पुष्प और विषाण का निषेध इनमें एक विषयत्व संभव है।
जैन-ऐसा नहीं कह सकते हैं, क्योंकि आकाश और खरगोश आदि में भाव-अभावरूप स्वभाव भेद पाया जाता है अर्थात् आकाश की अपेक्षा से भाव और पुष्पादि की अपेक्षा से अभावरूप दोनों ही स्वभाव आकाश एवं खरगोश आदि में विद्यमान हैं। अतः उनमें विधि और निषेध की उपलब्धि पाई जाती है, क्योंकि अन्य प्रकार से तो अनुभव का ही अभाव है।
सौगत-शब्द और विकल्पज्ञान में भेद होने से संकेत विशेष की अपेक्षा लेकर एक ही आकाश आदि विषय में विधि और निषेध दोनों ही संभव हैं। तब स्वभाव भेद मानने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात् जैसे 'ख' यह शब्द आकाश को कहने में संकेतित हुआ है और यही एक शब्द अपने आकाशरूप अर्थ का विधान करता हुआ वहीं पर पुष्प का अभाव भी प्रगट करता है, तब तो विधि और निषेध में स्वभावतः भेद मानने की क्या आवश्यकता है ? संकेतित शब्द से ही विधि और निषेध दोनों ही एक विषय में बिना किसी स्वभाव भेद के संभव हो जाते हैं।
1 सौगतो वदति स्वलक्षणं यत्तदेवान्यापोहः । तम् स्याद्वादी वदति । अस्तित्वमेव नास्तित्वं न च सर्वथा विधिप्रतिषेधयोर्द्वयोरेकत्रक्याभावात् । (दि० प्र०) 2 आकाशपरमाणवः । (दि० प्र०) 3 एकज्ञानस्वभावो सिद्धि रिति दर्शयन्नाह । (दि० प्र०) 4 बस्तु । (दि० प्र०) 5 सौगतो वदति वस्तुनोऽभावेपि संकेतो घटते संकेते सति शब्दविकल्पज्ञाने घटेते । अत एकत्र वस्तुनि विधिप्रतिषेधयोः संभवोस्ति। स्याद्वाद्याह एवं न कुतः संकेतविशेषस्य वस्तुस्वभावनिमित्तत्वात् । (दि० प्र०) 6 खादिलक्षणे । (दि० प्र०)
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