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अस्तित्व का स्वरूप ]
प्रथम परिच्छेद
[ ३६७
वृत्तिलक्षणाः स्वभावभेदाः प्रतिक्षणं प्रत्येतव्याः, स्वलक्षणमेवान्यापोह इति व्यवस्थापयितुमशक्तेः, तस्य संबन्ध्यन्तरापेक्षत्वात् । न च संबन्ध्यन्तराणि स्वलक्षणस्य स्वरूपभूतान्येव, तेषां ' पररूपत्वादन्यथा” ततः परावृत्तेरनुपपत्तेः । पररूपाण्यपि यदि संबन्ध्यन्तराणि भावस्वभावभेदकानि न स्युस्तदा' नित्यत्वेपि कस्यचित्संबन्ध्यन्तरेषु कादाचित्केषु क्रमशोर्थक्रिया न व विप्रतिषिध्येत । शक्यं हि वक्तुं क्रमवर्तीनि कारणानि तत्तन्निर्वर्तनात्मक नीति नित्यं स्वभावं न वै जहाति क्षणिकसामग्रीसन्निपतितैकतमवत् । तदेतत्तदा तत्तत्कर्तुं समर्थमेकं स्वभावविचलितं बिभ्राणं सहकारिकारणानि स्वभावस्याभेदकानि नाना कार्यनिबन्धनानि 'कादाचिकानि प्रतीक्षते इति । न चैवं वचने विषममुदाहरणं, क्षित्युदकबीजातपादिसामग्र्यामन्त्य
यदि वे संबंध्यंतर भावस्वभाव - आकाशादि में भेद करने वाले न होवें, तब तो नित्यत्व के होने पर भी किसी आत्मा के संबंध्यंतर ( पुत्रमित्र कलत्रादिकों) के कादाचित्क होने पर क्रम से अर्थक्रिया का निषेध नहीं हो सकेगा । ऐसा हम कह सकते हैं कि क्रमवर्ती सहकारी कारण उस कार्य के निर्वर्तन करने वाले हैं, और इसीलिये वे आत्मादि वस्तु नित्यरूप एक स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं । क्षणिक सामग्री से सन्निपतित एकतम के समान । अर्थात् जैसे अनेक कारणों में एककारण कार्य करने के स्वभाव को नहीं छोड़ता है । इसलिये ये उस समय तत्तत्कार्य को करने के लिये समर्थ एक अविचलित नित्य स्वभाव को धारणा करते हुये नित्य पदार्थ से नित्य स्वभाव में भेद को न करने वाले नाना कार्यों के निमित्त और कादाचित्क - अनित्य ऐसे बहुत से सहकारी कारणों की अपेक्षा रखते हैं ।
भावार्थ- संबंध्यंतररूप पररूप भी यदि स्वलक्षणरूप भाव के स्वभाव के भेदक नहीं हों तो फिर बौद्ध सिद्धांत में "नित्य पदार्थ के मानने में क्रम से अर्थक्रिया नहीं बन सकती है इस प्रकार का जो निषेध किया गया है" वह ठीक नहीं बैठता है कारण कि नित्य पदार्थ के मानने पर भी जो उसके संबंध्यंतर होंगे वे ही सब कादाचित्क होंगे और उनसे क्रम से अर्थक्रिया निष्पन्न होती रहेंगी ।
नित्यवादियों के प्रति बौद्धों का यह आक्षेप है कि नित्य पदार्थ यदि अर्थक्रियाकारी हैं तो क्रम से हैं अथवा अक्रम से ? क्रम से अर्थक्रियाकारी कहना तो उचित नहीं है क्योंकि नित्य पदार्थ समर्थ हैं इसलिये संपूर्ण क्रियाओं को युगपत् कर डालेंगे । इस पर यदि कोई यों कहे कि वे नित्य पदार्थ समर्थ तो हैं फिर भी सहकारी कारणों की अपेक्षा रखते हैं, तब तो वे नित्य पदार्थ समर्थ न होकर असमर्थ ही सिद्ध हुए इत्यादि ।
इस प्रकार कथन में उदाहरण विषम नहीं है । पृथ्वी, जल, बीज, आतप, वायु आदि सामग्री के अन्त्य क्षण को प्राप्त होने पर यव के अंकुर आदि कार्य के निर्वर्तक शेष कारणों के होने पर भी सन्नि
1 संबंध्यन्तराणाम् । ( दि० प्र०) 2 संबन्ध्यन्तराणि स्वरूपभूतानि यदि भवन्ति तदाऽभावस्योत्पत्तिर्न घटते । संबन्ध्यन्तराणां पररूपत्वाभावे । ( दि० प्र० ) 3 व्यावृत्तिरूप | ( व्या० प्र० ) 4 बोद्धेन त्वया यदि एवमुच्यते मयाप्येवमुच्यते नित्यादपि अर्थक्रियादर्शनात् । ( ब्या० प्र० ) 5 निष्पादनात्मकानि । ( दि० प्र० ) 6 ईप् । ( ब्या० प्र० ) 7 वायुः । ( ब्या० प्र० )
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