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अस्तित्व का स्वरूप ]
प्रथम परिच्छेद
[ ३६६
कारमादर्शयतीति मुग्धायते सर्वत्रासहायरूपानुपलब्धः। 'जातुचिन्निरंशरूपोपलब्धौ हि नानारूपोपलब्धिः संवृतिरात्मनि परस्मिश्चाविद्यमानमाकार' दर्शयतीति युक्तं वक्तुं, नान्यथा, अतिप्रसङ्गात् । यदि पुनरनाद्यविद्योदयादखिलजनस्यासहायरूपानुपलब्धिर्जाततैमिरिकस्यैकचन्द्रानुपलब्धिवदिति' मतं तदा
'गुणानां सुमहद्रूपं न दृष्टिपथमृच्छति । यत्तु दृष्टिपथप्राप्तं तन्मायेव सुतुच्छकम् ॥१॥ सर्व पुरुष एवेदं नेह नानास्ति किञ्चन । आरामं तस्य' पश्यन्ति न तं कश्चन पश्यति ॥२॥
पर में असंभवरूप विधि-प्रतिषेध आकार को दिखलाते हुये वे सौगतादि मूढ़वत् आचरण कर रहे हैं, क्योंकि सभी वस्तु में असहाय-निरंशरूप की अनुपलब्धि है ।
यदि कदाचित् निरंशरूप की उपलब्धि स्वीकार कर लेवें, और "नाना प्रकार के रूपों की उपलब्धि है वह संवृत्ति है" ऐसा कहें, तब तो वह संवृत्ति अपने में और पर में अविद्यमान-असत् आकार को दिखलाती है ऐसा कहना ही युक्त होगा, अन्य प्रकार से नहीं कह सकते, क्योंकि अतिप्रसंग दोष आता है।
बौद्ध-अनादि अविद्या के उदय से अखिलजनों को उस असहाय-निरंशरूप की उपलब्धि नहीं हो सकती है, जैसे कि किसी को तिमिर आदि रोग के होने से एक चन्द्र की उपलब्धि नहीं हो सकती है।
जैन - यदि आपकी ऐसी मान्यता है तब तो
श्लोकार्थ-सांख्य के द्वारा कहे गये सत्त्व, रज और तम गुणों का सुमहद्रूप (प्रधान) दृष्टिपथ में नहीं आता है और जो बुद्धि आदि दृष्टिपथ को प्राप्त हैं वे सुतुच्छ-निःस्वभाव मायारूप ही हैं ॥१॥
यह सब जगत् पुरुषरूप ही है नानारूप कुछ भी नहीं है और जो कुछ दिखता है वह उस ब्रह्मा का ही प्रपञ्च है सभी उसके प्रपञ्च-पर्यायों को ही देखते हैं उस परम पुरुष को कोई भी नहीं देख सकता है ।।२।।
1 कदाचित् । (ब्या० प्र०) 2 अर्थे । (ब्या० प्र०) अन्तर्वस्तुनि चैतन्यरूपे बहिर्वस्तुनि अचैतन्ये रूपे। (दि० प्र०) 3 स्वलक्षणज्ञानस्यापि संवृत्तित्वप्रसंगात् । (ब्या० प्र०) 4 निरंश । (दि० प्र०) 5 स्याद्वादी वदति हे सौगत निरंशः स्वलक्षणः प्रमाणं विना यथा त्वया स्थाप्यते । तथान्यनित्यवादिभिः प्रमाणं विना सर्व वस्तु पुरुष एव इति स्थाप्यते । (दि० प्र०) 6 नित्यनिरंशसर्वगतप्रमुखाणां सुमहत्स्वरूपं ब्रह्माद्वैतवाद्यभ्युपगतं परमब्रह्म दृष्टिगोचरत्वं न प्राप्नोति । (दि० प्र०) 7 तस्य ब्रह्मरूपपुरुषस्यारामं पर्यायम् । (दि० प्र०)
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