Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 437
________________ ३६८ ] अष्टसहस्री कारिका १७ क्षणप्राप्तायां' सन्निपतितस्यैकतमस्य कारणस्य शेषेषु कारणेषु यवाकुरादिकार्यनिर्वर्तनात्मकेषु सत्स्वपि स्वभावाभेदस्य क्षणिकवादिनः सिद्धत्वात् । [ सर्वेऽपि पदार्था विधिनिषेधधर्माभ्यां संबद्धाः सन्ति, इति जैनाचार्याः कथयंति ] तदिमा विधिप्रतिषेधाभ्यां संप्रतिबद्धा न प्रतिबन्धमतिवर्तन्ते वस्तुत एव । ततो न संवृतिस्तद्व्यवहाराय' भेदमावृत्त्य तिष्ठतीति युक्तं, विधिप्रतिषेधसंबन्धशून्यस्य भेदस्य स्वलक्षणलक्षणस्य साक्षादध्यक्षतोनुपलक्षणात्। तथानुमानादप्यप्रतिपत्तेविधेः प्रतिषेधस्य चापह्नवे व्यवहाराघटनात्, संवृतेस्तमावृत्त्य स्थितिविरोधात्, परमार्थत एव भावस्यानेकस्वभावस्य प्रतीते:12 । तदनेकस्वभावाभावे विनिर्भासासंभवादात्मनि14 परत्र15 चासंभविनमापतित व बीज लक्षण ही एकतम कारण है । इस प्रकार से स्वभाव में भेद को न मानने वाले क्षणिकवादी बौद्धों के यहाँ भी सिद्ध है । __ अर्थात् यव के अंकुर को उत्पन्न करने के लिये मिट्टी, जल, आतप, वायु आदि अनेकों कारण हैं उन सभी में यव का बीज मुख्य कारण है वह अपने यव के अंकुर को उत्पन्न करनेरूप कार्य स्वभाव को नहीं छोड़ता है। [ सभी पदार्थ विधि निषेध इन दो धर्मों से संबंधित हैं, इस प्रकार से जैनाचार्य कहते हैं ] अतएव जिस प्रकार से भिन्न-भिन्न संबंध वस्तु स्वभाव में भेद करने वाले हैं उसी प्रकार से ये आकाश आदि पदार्थ विधि और प्रतिषेध इन दो धर्मों से संप्रतिबद्ध-सहित होते हये अविनाभाव संबंध का उलंघन नहीं करते हैं। अर्थात आपस में अविनाभाव संबंध रखते हैं एवं परमाथिक ही हैं। इसीलिये 'उस व्यवहार के लिये संवृति उस स्वलक्षणनिरंश भेद को आवृत्त करके रहती हैं। यह बौद्धों का कथन युक्त नहीं है, क्योंकि विधि और प्रतिषेध के संबंध से शून्य स्वलक्षण लक्षणवाले भेद का साक्षात-प्रत्यक्ष से अनुभव नहीं हो रहा है। उसी प्रकार अनमान से भी उसका ज्ञान नहीं देखा जाता है, क्योंकि विधि और प्रतिषेध का अपह्नव करने पर कोई व्यवहार ही नहीं बन सकता है। यदि संवृति से उस स्वलक्षणभेद की आवृत्ति मानें, तो भी उसकी स्थिति नहीं बन सकेगी । अतः परमार्थ से ही प्रत्येक वस्तु में विधि-प्रतिषेध, सत्वासत्त्व, नित्यानित्य आदि अनेक स्वभाव प्रतीति सिद्ध हैं। इस प्रकार से अनेक स्वभाव का अभाव मानने पर विनिर्भासभेद असंभव होने से आत्मा और 1 सम्पूर्ण कार्यजननसमर्थायां विषये। (दि० प्र०) 2 अन्त्यक्षणव्याप्तस्य बीजादिलक्षणकारणस्य स्वभावाभेदस्तस्य । (दि० प्र०) 3 धर्माभ्याम् । (दि० प्र०) 4 संवद्धाः । अविनाभूताः । (दि० प्र०) 5 संयोगविनाऽविनाभावित्वं संबन्धमुल्लंघयन्ति न । स्वभावभेदाभ्यां संबन्धम् । (दि० प्र०) 6 कल्पना । (दि० प्र०) 7 भेदः । (दि० प्र०) 8 आश्रित्य । (दि० प्र०) 9 मुख्यवृत्या । प्रत्यक्षेणादर्शनात् । (दि० प्र०) 10 अप्रतीतेः । (दि० प्र०) 11 भेदः । (दि० प्र०) 12 ततश्च । (दि० प्र०) सति । (ब्या० प्र०) 13 नानाकारः । (ब्या० प्र०) 14 संवृतौ । अर्थे । (ब्या० प्र०)१५. सौगतः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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