Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 432
________________ अस्तित्व का स्वरूप ] प्रथम परिच्छेद [ ३६३ क्रियाकारित्वव्याघातात् सन्तः खपुष्पादयो व्यवह्रियेरन् । दर्शने स्वाकारमनर्पयता [तां] स्वभावकार्य प्रतिबन्धाभावे प्रमेयत्वं' 2 प्रमाणान्तरमवश्यमाकर्षति । ततो विप्रतिषिद्धमेतत् खपुष्पादीनां प्रमेयत्वं, 'प्रमाणद्वयनियमविरोधात् । न च ' प्रमाणान्तरेणापि प्रमीयमाणास्ते, प्रमाणविषयत्वधर्मस्यानाश्रयत्वात् । अन्यथा वस्तुत्वापत्तेः सदसद्व्यवस्थानुपपत्तेस्तद्वयवहारा सौगत - प्रत्यक्ष एवं अनुमान के द्वारा प्रमीयमाण -- जाने गये होने गगन कुसुम आदि प्रमेय हैं । जैन- नहीं, क्योंकि आपका हेतु असिद्ध है । तथाहि - वे गगन कुसुम आदि प्रत्यक्ष से प्रमीयमाण नहीं है, क्योंकि वे उस प्रत्यक्ष में अपने आकार का अर्पण नहीं करते हैं एवं अनुमान से भी वे जाने गये नहीं हैं कारण कि उनमें स्वभावहेतु और कार्यहेतु के साथ अविनाभाव का अभाव है । यदि आप किसी स्वभाव हेतु के साथ उन गगन पुष्पादिकों में अविनाभाव स्वीकार करेंगे तब तो उनमें निःस्वभावत्व का विरोध हो जावेगा । अर्थात् गगन पुष्पादि तो स्वयं ही अभावरूप हैं, पुनः स्वभाव हेतु से उनका सद्भाव कैसे सिद्ध कर सकेंगे ? एवं कार्य हेतु से उन गगन कुसुमों का अविनाभाव मानने पर तो उनका अनर्थक्रियाकारित्व विरुद्ध हो जावेगा । अर्थात् उन गगन कुसुमों की भी अर्थक्रिया - माला बनाना, सुगन्धि फैलाना आदि होने लगेंगे और फिर उन आकाश पुष्पादि को भी सत्रूप - विद्यमान हैं ऐसा ही कहना पड़ेगा । यदि आप यों कहें कि भले ही वे गगन पुष्पादि निर्विकल्प प्रत्यक्ष में अपना आकार अर्पण न करें एवं स्वभावहेतु और कार्यहेतु के साथ भले ही उनमें अविनाभाव भी न हों तो भी वे प्रमेय हैं । तब तो आपको अवश्य ही इन प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न कोई अन्य तृतीय प्रमाण स्वीकार करना चाहिये किन्तु आप तृतीय प्रमाण स्वीकार करना नहीं चाहते, अतएव " आकाश पुष्पादि में प्रमेयपना है" यह कथन विरुद्ध ही है क्योंकि आपके प्रमाणद्वय के नियम का विरोध हो जाता है और वे प्रमाणान्तर से भी प्रमीयमाण नहीं हैं क्योंकि प्रमाण का विषय जो प्रमेय है, उसके धर्म का आश्रय वे नहीं लेते हैं । अन्यथा यदि प्रमेय धर्म का आश्रय लेंगे तो वे आकाश पुष्पादि भी वस्तुभूत हो जावेंगे। फिर तो यह सत् है एवं यह असत् है इत्यादि रूप से सत्-असत् की व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी तब तो असत् व्यवहार का भी अभाव हो जावेगा । अर्थात् आपके यहाँ भी तो 'स्वलक्षण सत् है अन्यापोह असत् है' ऐसा जो व्यवहार है वह समाप्त हो जावेगा । 1 कर्तृ । (दि० प्र०) 2 तृतीयम् । कर्म । ( ब्या० प्र० ) 3 विरुद्धम् । ( ब्या० प्र०) 4 सौगतः प्रमाणद्वयमभ्युपगच्छति अतस्तत्द्वयव्यवस्थापनविरोधात् खपुष्पादीनां प्रमेयत्वं विरुद्धयते । प्रमाणान्तरेण साधयति चेत् प्रमाणद्वयनियमो विरुद्धयत इत्यर्थः । ( दि० प्र० ) 5 सौगतस्य । ( ब्या० प्र० ) 6 प्रमाणान्तराङ्गीकारेपि । ( ब्या० प्र० ) 7 अतः प्रागन्यथा इत्यध्याहारः । प्रमाणविषयत्वधर्माश्रयत्वेऽपि वस्तुत्वानापत्तौ इत्यर्थ: । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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