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अस्तित्व नास्तित्व का अविनाभाव ]
प्रथम परिच्छेद
[ गगनकुसुमादयाः प्रमेयाः संति न वेत्यस्य विचारः ]
खपुष्पादयोपि तत्र व्यवहारमिच्छता प्रमेयाः प्रतिपत्तव्या इति न किञ्चित्प्रमाणं प्रमेयाभावस्यापि तथाभावानुषङ्ग ेणाव्यवस्थाप्रसङ्गात् । न चैतद्विरुद्धं स्वलक्षणमनिर्देश्यमित्यादिवत् । न हि स्वलक्षणस्यानिर्देश्यस्याप्यनिर्देश्यशब्देन निर्देशे विरोधोस्ति । नापि प्रत्यक्षं कल्पनापोढमपि कल्पनापोढत्वेन कल्पयतः ' किञ्चिद्विरुध्यते, सर्वथा 'तद्वयवहारापह्नवप्रसङ्गात् । तथैव खपुष्पादयोऽप्रमेया इति व्यवहरतोपि न तेषामप्रमेयत्वं विरुध्यते, तत्प्रमितौ प्रमाणाभावात्प्रमेयाभाववत्' । तदभावेपि खपुष्पादीनां प्रमेयत्वे प्रमेयाभावस्यापि प्रमेयत्वा
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[ गगन पुष्पादि प्रमेय हैं या नहीं ? इस पर विचार ]
सौगत -- आकाश पुष्प आदि भी आकाश पुष्प के ज्ञान में "आकाश पुष्प" इस व्यवहार से सहित हैं ऐसा स्वीकार करते हुए, उन्हें प्रमेयरूप से जाना चाहिये ।
जैन - इस प्रकार से तो आकाश पुष्प की प्रमिति में किंचित् भी प्रमाण नहीं रहेगा अन्यथा यदि आप मानें तो प्रमेयाभाव को भी तथाभाव का प्रसंग होने से यह प्रमेय है, यह प्रमेयाभाव है ऐसी व्यवस्था नहीं बन सकेगी किन्तु यह व्यवस्था विरुद्ध भी नहीं जैसे कि स्वलक्षण और अनिर्देश्य इत्यादि ।
भावार्थ- आपने साधर्म्याविनाभावी सिद्ध करने के लिए जो खपुण्य को दृष्टांत में लिया है वह ठीक नहीं है कारण कि वहाँ प्रमेयत्व का अभावरूप वैधर्म्य नहीं आता है । यदि वही प्रमेयत्व का अभावरूप वैधर्म्य मान लिया जाये तब तो खपुष्प इस तरह का व्यवहार भी नहीं बन सकता है: अतः जब यह व्यवहार होता है तब प्रमेयत्व का अभाव दिखलाकर जो आप प्रमेयत्व हेतु को वैधर्म्याविनाभावि सिद्ध कर रहे हैं वह ठीक नहीं है ।
'खपुष्पादि' को " खपुष्पाद्यो अप्रमेयाः " इस प्रकार से व्यवहार होने से यदि प्रमेयत्वादि हेतुओं का सपक्ष माना जाये अर्थात् प्रमेय स्वरूप स्वीकार किया जाये तब तो प्रमाण की कोई कीमत ही नहीं रहती है क्योंकि तुम्हारी मान्यतानुसार प्रमेयाभाव भी प्रमाण का विषय प्रमेय हो जाता है । तथा च "अयं प्रमेयः असौ प्रमेयाभावः " यह व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी ।
1 खपुष्पादीनां प्रमेयाभावस्य प्रमेयत्वारोपणेन व्यवस्थितिर्न घटते ( दि० प्र० ) 2 अयं प्रमेयः असौ प्रमेयाभाव इति । ( दि० प्र० ) 3 कश्चिद् वदति खपुष्पादयो यदि प्रमेया न भवन्ति तदा खपुष्पमिति वाग्व्यवहारः प्रवर्तते विरुद्धं नास्ति । हे सौगत यथा तव मते स्वलक्षणमनिर्देश्यं खलक्षणमवाच्यम् । यद्यपि तथापि स्वलक्षणमित्युच्चारणवाग्व्यवहारो न विरुद्धयते । ( दि० प्र०) 4 निश्चिन्वतः । (ब्या० प्र० ) 5 अन्यथा । ( व्या० प्र०) हे सौगत ! त्वन्मते निर्विकल्पकदर्शनं कल्पनारहितमपि कल्पनापोह इति शब्दमुच्चारयतः पुंसः किञ्चिद्विरुद्धयते न । ( दि० प्र०) 6 वाग्व्यवहारलोपः प्रसजति । ( दि० प्र० ) 7 प्रमेयाभावप्रमिती प्रमाणं नास्ति यथा । ( दि० प्र०) 8 परवादी वदति प्रमाणाभावेपि खपुष्पादीनां प्रमेयत्वं भवतु । उत्तरमेवं सति अप्रमेयस्यापि प्रमेयत्वं प्रसजति । (दि० प्र०)
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