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अष्टसहस्री
[ कारिका १६
है, इसलिये युगपत् शब्द के द्वारा विषय युगपत् अनेक अर्थ का विषय न मानने से ही "स्यात् अवक्तव्य" भंग हो जाता है । एवं व्यस्त और समस्तरूप से द्रव्य और पर्याय का आश्रय लेकर अन्तिम तीन भंग बनते हैं ।
अद्वैतवादीने सर्वथा "सत् अवक्तव्य" को माना है । बौद्ध सर्वथा " असत् अवक्तव्य" को स्वीकार करता है । योग सर्वथा "सत् असत् अवक्तव्य" को ही मानता है । इन एकान्त मान्यताओं अनेक दूषण आते हैं । अतएव " स्यात्" पद से चिन्हित सप्तभंगी ही निर्दोष है
स्यादस्ति एव स्यान्नास्येव स्यादस्ति नास्त्येव, स्यादवक्तव्यमेव स्यादस्ति अवक्तव्यमेव, स्यान्नास्ति अवक्तव्यमेव स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यमेव । प्रमाणसप्त भंगी और नयसप्त भंगी में अन्तर-द्रव्यार्थिक नय से अभेदवृत्ति एवं पर्यार्यार्थिक नय अभेदोपचार द्वारा अनन्तधर्म वाले पदार्थ युगपत् कहने वाला "सकलादेश” अथवा “प्रमाणवाक्य " हैं ।
एक देश से जानी हुई वस्तु को भेदवृत्ति एवं भेदोपचार से क्रम से कहने वाले वाक्य " विकला"देश" या "नयवाक्य" हैं । इस विवेचन से स्पष्ट है कि शब्द, पद, एवं वाक्य, गौण प्रधानार्थ वाचक हैं युगपत् अनेक प्रधानार्थ वाचक नहीं हैं । शब्द अपने इस स्वभाव को हजारों संकेत के द्वारा भो त्याग नहीं कर सकते हैं। तभी इन शब्दों के द्वारा "प्रश्नवशात्" एक ही वस्तु में सप्तभंगी घटित हो जाती है । तात्पर्य यह है कि - सभी वस्तु में सप्तभंगी घटित करते हुये आचार्य ने अनंत भंगी के आरोप को समाप्त कर दिया है । और प्रमाण सप्तभंगी, नय सप्तभंगी का पृथक्करण कर दिया है। सप्तभंगी के लक्षण में "अविरोधेन पद बड़े महत्व का है इससे कथंचित् हिंसा धर्म है, कथंचित् अहिंसा धर्म है" ऐसी सप्तभंगी नहीं बनेगी ।
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