Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 426
________________ अनेकांतसिद्धि का सारांश ] प्रथम परिच्छेद [ ३५७ समाधान-ऐसा नहीं है, स्वपर से विवक्षित धर्मों में विरोध नहीं आता है। जिस समय वस्तु स्वरूपादि से सत्रूप है उसी समय ही पररूप से असत्रूप है । तथैव यदि स्वक्षेत्र के समान ही परक्षेत्र से भी सत्त्व मानों तब तो किसी के प्रतिनियत क्षेत्र की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। परक्षेत्र की अपेक्षा से असत्त्व के समान ही स्वक्षेत्र से भी असत्त्व मानों तो वस्तु निःक्षेत्र हो जायेगी। काल में भी ऐसे ही घटा लेना। प्रश्न-सभी वस्तु अवक्तव्य कैसे हैं ? उत्तर-निष्पर्याय भाव और अभाव को कोई भी शब्द एक काल में ही विषय नहीं कर सकता है अर्थात् सत् यह शब्द असत् को नहीं कह सकता है। शब्द में एक ही अर्थ को कहने की शक्ति स्वभावतः है । यदि कहो कि एक गो शब्द ग्यारह अर्थ को कहता है "किन्तु" ऐसा नहीं है वास्तव में वे गो शब्द अनेक हैं। इनमें जो एकत्व का प्रतिभास है या एक रूप से व्यवहार है वह सादृश्य के उपचार से ही हआ है। यदि ऐसा न माना जावे तो एक शब्द से ही समस्त पदार्थ वाच्य हो जायेंगे। पूनः घट-घट दीपक आदि अनेक पदार्थों को कहने के लिये अनेक शब्दों का प्रयोग निष्फल ही हो जायेगा । अतएव जितने अर्थ हैं उनके प्रतिपादक शब्द उतने ही हैं। अनेकान्त वाचक "स्यात्' इस शब्द की अनेकांत मात्र को कहने में ही सामर्थ्य विशेष है. एकांतवचन को कहने में नहीं है । उसी अनेकान्त द्योतक रूप "स्यात्" शब्द की अविवक्षित अशेष धर्मों को सूचित करने में शक्ति है, किन्तु अर्थ को सूचन करने में नहीं है। अन्यथा विवक्षित धर्म के वाचक शब्दों का प्रयोग व्यर्थ हो जायेगा। अर्थात् "स्यात्" शब्द के वाचक और द्योतक पक्ष की अपेक्षा से दो भेद हैं । तथैव सेना, वन आदि शब्द एक साथ अनेक अर्थ को नहीं कहते हैं किन्तु सेना शब्द के द्वारा तो "हाथी, घोड़े, रथ, पदाति का समूहरूप" एक विशेष अर्थ ही कहा जाता है। उसी प्रकार यूथ, पंक्ति, माला आदि भी अनेकार्थ प्रतिपादक नहीं हैं। हमारे यहाँ पूज्यपाद स्वामी जैनेंद्रव्याकरण में शब्द में स्वाभाविक ही वैसी द्विवचन, बहुवचनरूप शक्ति मानते हैं, प्रत्यय के द्वारा व्यक्ति मानते हैं। पाणिनी आदि एकशेष समास मानते हैं अर्थात् वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षौ कहते हैं। हमारे यहाँ वृक्ष शब्द स्वभाव से ही (द्रव्य की अपेक्षा से) अपने वाच्य अर्थ को द्विवचनरूप, बहुवचनरूप से विशिष्ट कहता है, क्योंकि उसमें एकत्व, द्वित्व, बहुत्व से विशिष्ट कथन करने की सामर्थ्य मौजूद है। उक्तं च-"अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, वृक्षा इति प्रत्ययवत् प्रकृत्या।" यदि कहो कि यह आपका सिद्धान्त परस्पर विरुद्ध हो गया, इस पर हम पूछते हैं कि एक पद का वाच्य जो एक और अनेक है वह युगपत् प्रधानभाव से है, अथवा गौण एवं प्रधानभाव से है ? प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि वृक्ष शब्द सामान्य वृक्षत्व को प्रकाशित करके लिंग, वचन, संख्या को प्रकाशित करता है इस तरह शब्द से हुई प्रतीति क्रम से है। हम द्वितीय पक्ष मानते हैं । क्योंकि "वृक्षा" इस पद के द्वारा वृक्ष अर्थ तो प्रधान है एवं बहुवचनरूप संख्या गौण रूप से प्रतीति में आती है। प्रधान गौण भाव से हमारे यहाँ बाधा नहीं है । शब्द अपने एक धर्म को प्रतिपादन करने की शक्ति से सहित है, एवं प्रधानभाव से अपित अनेक धर्मों को युगपत् कहने की अशक्ति से सहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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