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अष्टसहस्री
[ कारिका १६ किन्तु ऐसा नहीं है वस्तु के अनंत धर्मों में धर्म धर्म के प्रति सप्तभंगी घटित होती है। अनंतभंगी न होकर अनंत सप्तभंगी हो जाती है । सो हमें इष्ट ही है । वस्तु में एकत्व अनेकत्व की कल्पना से सप्त ही भंग होते हैं क्योंकि शिष्यों के द्वारा उतने ही प्रश्न होते हैं क्योंकि "प्रश्नवशादेव" ऐसा वचन है । सात ही प्रश्न क्यों? तो सात प्रकार की ही जिज्ञासा होती है। जिज्ञासा भी सप्तधा ही क्यों? तो सात प्रकार का ही संशय होता है। ऐसा क्यों ? तो उस संशय के विषयभूत वस्तु धर्म सात प्रकार के ही हैं। यह सप्तविध व्यवहार निविषयक नहीं है क्योंकि वस्तु की प्रतिपत्ति-ज्ञान उसमें प्रवृत्ति और उसकी प्राप्ति का निश्चय देखा जाता है ।
प्रथम भंग में—सत्त्वधार्म प्रधानभाव से प्रतीत है। द्वितीय में-असत्त्व धार्म प्रधान है । तृतीय में—क्रम से सत्त्वासत्त्व धर्म प्रधान है। चतुर्थ में—अवक्तव्य प्रधान है। पांचवें में सत्त्व सहित अवक्तव्य, एवं छठे में-असत्त्व सहित अवक्तव्य प्रधान है तथा सातवें में सत्त्वासत्त्वरूप उभय धर्म सहित अवक्तव्य प्रधान है। अर्थात् प्रथम भंग में असत्त्वादि शेष ६ भंग गौणरूप से हैं ऐसे सभी में एक भंग प्रधान होकर बाकी सब गौण हो जाते हैं ।
यदि कोई कहे कि अवक्तव्य को पृथक् धर्म सिद्ध करने पर वक्तव्य भी एक पृथक् धर्म मानना होगा तो आठवां भंग बनेगा? यह शंका भी निर्मूल है क्योंकि सत्त्व आदि के द्वारा वक्तव्य कार्य ही तो कहे गये हैं अत: आठवां भंग नहीं बनेगा। अथवा वक्तव्य और अवक्तव्य रूप दो धर्म सिद्ध होने से विधि-प्रतिषेध कल्पना के विषयभूत सत्त्व असत्त्व धर्म के समान ही एक भिन्नरूप सप्तभंगी इनकी भी सिद्ध हो जायेगी।
अतएव भट्टाकलंक देव ने सप्तभंगी वाणी को 'स्याद्वादामृतभिणी' कहा है। यदि गुरू स्याद्वादकुशल हैं तो स्यात्-कथंचित् शब्द के प्रयोग बिना भी सभी वस्तु को अनेकांतात्मक सिद्ध कर देते हैं जैसे “सर्वं सत्" इतने वाक्य से भी “स्यात्सर्वं सदेव' इत्यादि पूर्ण वाक्य का सम्यक प्रकार से ज्ञान करा देते हैं।
छहों द्रव्य शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा सन्मात्र होने से सत्रूप हैं। कतिचित् भावों की अपेक्षा से असत्रूप हैं क्योंकि “सत्ता सप्रतिपक्षा" ऐसा कहा है।
सकल क्षेत्र आकाश एवं अनादि अनन्त स्वरूप काल में भी सकल क्षेत्र एवं सकल कालादिरूप से तथैव प्रतिनियत क्षेत्र कालादिरूप से स्वपर स्वरूप निश्चित हो जाता है।
यदि कोई कहे कि वस्तु का सत्त्व ही तो पर के असत्त्वरूप है अतः स्वपर की अपेक्षा से दो भेद सिद्ध नहीं होते हैं क्योंकि दो में से किसी एक के द्वारा ही अर्थ बोध हो जाता है । यह कथन भी ठीक नहीं है, यदि जो वस्तु का अपना सत्त्व है वही पर का असत्त्व है, तब तो स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा के समान ही पररूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्व मानना होगा। अथवा परचतुष्टय की अपेक्षा से नास्तित्व के समान ही स्वरूपादि से भी असत्त्व का प्रसंग आ जायेगा। किन्तु अपेक्षा के भेद से सभी धर्मों की प्रतीति विरुद्ध नहीं है।
शंका-एक ही वस्तु में विरुद्ध दो धर्म शीत-स्पर्शवत् सम्भव नहीं हैं ?
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