Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 423
________________ अष्टसहस्री [ कारिका १६ माभावेपि 'केषांचिदतत्कारणकार्यव्यावृत्तिः सिध्येदिति प्रकृतमुदाहरणं' 'कर्कादिव्यक्तीनाम श्वत्वादिप्रत्ययं तथा' समानपरिणामहेतुकं साधयति ? इति विपर्याससाधनमन्यापोहवादिनाम् । ततोमीषामन्यापोहसामान्यमसदवक्तव्यमेव । एतेन स्वलक्षणान्यापोहद्वयं सदसदवक्तव्यमेव सौगतानामापादितमुन्नेयं, स्वलक्षणस्य सतोप्यन्यापोहस्य चासतोपि' वक्तुमशक्यत्वात् । इति परमतापेक्षया चरमभङ्गत्रयमुदाहृतम् । व्यावत्ति कैसे सिद्ध होगी जिससे कि यह प्रकृत उदाहरण कर्क (श्वेत घोड़ा) आदि विशेषों में त्व आदि प्रत्यय को समान परिणाम हेतुक सिद्ध कर सकें ? इस प्रकार अन्यापोहवादियों के यहाँ रीत ही सिद्ध होता है। इसलिये उनके यहाँ अन्यापोह सामान्य "असत अवक्तव्य ही है।" से स्वलक्षण और अन्यापोह ये दोनों "सत् असत् अवक्तव्य ही है" ऐसा बौद्धों का कथन समझना चाहिये क्योंकि स्वलक्षणरूप सत का भी और अन्यापोहरूप असत का भी कहना शक्य नहीं है । बौद्ध ऐसा एकान्त से मानता है अतः यह मान्यता गलत ही है। इस प्रकार से परमत की अपेक्षा से अन्तिम तीन भंगों का स्पष्टीकरण किया गया है। 1 गुडूच्यादीनाम् । (च्या० प्र०) 2 दधित्रपुषदि । (व्या० प्र०) 3 कर्तृ । (च्या० प्र०) 4 ता गुडूच्यादीनाम् । (दि० प्र०) 5 श्वेताश्वादि विशेषाणाम् । (दि० प्र०) 6 ज्ञानम् । (दि० प्र०) 7 श्वेताश्वः कर्कः सित: कर्क इत्यमरः । (दि० प्र०) गुडूच्याशुदाहरणप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 8 हेतोः । (दि० प्र०) 9 अतत् कार्यकारणध्यावृत्तत्वात् । (दि० प्र०) 10 सौगतानाम् । (दि० प्र०) 11 असदित्यवक्तव्यम् । (ब्या० प्र०) 12 वा । इति पा० । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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