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अनेकांत सिद्धि का सारांश ]
प्रथम परिच्छेद
अनेकांतसिद्धि का सारांश
हे भगवन् ! आपके शासन में कथंचित् सभी वस्तु सत् असत् आदि सप्त भंगरूप हैं । यथा “प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेध कल्पना सप्तभंगी" उसी सप्तभंग को द्रव्य में घटित करते हैं—
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स्यास्ति द्रव्यं स्यान्नास्ति द्रव्यं, स्यादस्ति च नास्ति च द्रव्यं, स्यादवक्तव्यं द्रव्यं, स्यादस्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं, स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं | यहाँ पर सर्वथा अस्तित्व का निषेधक और अनेकांत का द्योतक कथंचित् इस अपरनाम वाला स्यात् शब्द निपात है । इनमें स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य अस्तिरूप है । परद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा द्रव्य नास्तिरूप है । क्रम से स्वपर द्रव्यादि की अपेक्षा तृतीय भंगरूप है । युगपत् स्वपर द्रव्यादि की अपेक्षा अवक्तव्यरूप है ।
स्वचतुष्टय तथा युगपत् स्वपर चतुष्टय से विवक्षित पाँचवाँ भंग है । तथा परचतुष्टय एवं स्वपर की युगपत् विवक्षा से छठा भंग है । स्वपर चतुष्टय को क्रम और युगपत् विवक्षा से सातवाँ भंग होता है । यह कथन बिल्कुल ठीक है क्योंकि सभी वस्तु स्वरूप से अशून्य, पररूप से शून्य, उभयरूप से अशून्य शून्य इत्यादि सात भंगरूप हैं । यदि कोई कहे कि विधि कल्पना ही वास्तविक है, सो ठीक नहीं है क्योंकि हमने भावैकांत का निषेध करके प्रतिषेध को भी सत्य सिद्ध किया है । यदि बौद्ध कहे कि प्रतिषेध कल्पना ही ठीक है, यह कथन भी गलत है । हमने अभावैकांत का भी खण्डन कर दिया है ।
योग - सत् अर्थ के प्रतिपादक विधिवाक्य, असत् अर्थ के प्रतिपादक प्रतिषेध वाक्य हैं, जो कि परस्पर निरपेक्ष है । "सद्सदवर्गास्तत्वं" द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, ये सत्रूप हैं । निरपेक्ष अभाव पदार्थ असत्रूप हैं ।
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जैन - यह भी कहना ठीक नहीं है, प्रधानभाव से विवक्षित सदसदात्मक वस्तु प्रधानभूत एक एक धर्मात्मक अर्थ से अर्थातररूप सिद्ध है अतः भावाभाव परस्पर निरपेक्ष असत् ही है । उसी विधि प्रतिषेध का स्पष्टीकरण -- १. विधिकल्पना, २ . प्रतिषेधकल्पना, ३. क्रमतो विधि प्रतिषेधकल्पना, ४. सह विधिप्रतिषेधकल्पना च ५. विधिकल्पना सह विधिप्रतिषेधकल्पना च ६. प्रतिषेधकल्पना सह विधिप्रतिषेधकल्पना च, ७. क्रमाक्रमाभ्यां विधिप्रतिषेधकल्पना च ।
शंका- एक ही वस्तु में प्रत्यक्षादि से विरुद्ध भी विधि प्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी बन जायेगी ।
समाधान- नहीं, क्योंकि सूत्र में "अविरोधेन" यह पद दिया गया है । यदि कहा कि नाना वस्तु के आश्रय से विधि प्रतिषेध कल्पना भी सप्तभंगी होगी, सो भी ठीक नहीं, "एकत्रवस्तुनि " पाठ है । इस पर यदि कोई तटस्थ जैन यों कहे कि -- एक भी जीवादि वस्तु में विधियोग्य और निषेध योग्य अनंत धर्म पाये जाते हैं । उन अनंत धर्मों की कल्पना भी "अनंतभंगी" बन जायेगी तब सप्तभंगी ही कैसे होगी ?
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