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जयपराजय व्यवस्था ]
प्रथम परिच्छेद
[ ३५ तस्य पराजयाय प्रकल्प्यते', 'तत एव । एतेन स्वपक्षसिद्धौ कृतायामपि परपक्षनिराकरणं, तस्मिन्वा स्वपक्षसाधनाभिधानं न वादिप्रतिवादिनोर्जयप्राप्तिप्रतिबन्धकमिति प्रतिपादितं बोद्धव्यम् । तदेवं साधर्म्यवैधर्म्ययोरन्यतरेणार्थगतौ तदुभयवचनं वादिनो निग्रहाधिकरणमित्ययुक्तं च 'व्यवस्थितम् ।
[ बौद्धो ब्रूते वादकाले प्रतिज्ञाप्रयोगो निग्रहस्थानं जैनाचार्यास्तत्कथनं निराकुर्वन्ति ] प्रतिज्ञादिवचनं निग्रहस्थानमित्येतत्कथमयुक्तमिति चेदुच्यते । 'प्रतिज्ञानुपयोगे10 11शास्त्रादिष्वपि नाभिधीयेत, "विशेषाभावात् ।* न हि शास्त्रे प्रतिज्ञा14 नाभिधीयते एव अनियत
वचनाधिक्य दोष के अज्ञान से ही पराजय स्वीकार करते हैं। अतः आपकी इस मान्यता से प्रतिवादी का पराजय मानना ठीक नहीं है क्योंकि प्रतिज्ञा, उदाहरणादि स्वपक्ष की सिद्धि में बाधक नहीं है ।
इसी कथन से स्वपक्ष की सिद्धि कर देने पर परपक्ष का निराकरण हो जाता है अथवा परपक्ष का निराकरण हो जाने पर स्वपक्ष सिद्धि का कथन हो जाता है । यह बात वादी और प्रतिवादी के जय का प्रतिबन्धक-बाधक नहीं है ऐसा प्रतिपादन किया गया समझना चाहिये । अर्थात् वादी जब स्वपक्ष सिद्धि करके पक्ष का निराकरण कर देता है तब उसकी जय हो जाती है। अथवा जब प्रतिवादी परपक्ष का निराकरण करके स्वपक्ष की सिद्धि कर देता है तब उसकी जय हो जाती है। इसमें कोई बाधक नहीं है । इस प्रकार से "साधर्म्य-वैधर्म्य इन दोनों में से किसी एक के प्रयोग करने से ही साध्य की सिद्धि हो जाती है अत: दोनों का प्रयोग करना वादी के लिये निग्रह स्थानरूप दोष है" यह कथन युक्त नहीं है ऐसा व्यवस्थित हो जाता है। [बौद्ध कहता है कि वादकाल में प्रतिज्ञा का प्रयोग करना निग्रहस्थान है । जैनाचार्य
इस कथन का निराकरण करते हैं। बौद्ध--प्रतिज्ञा उदाहरण आदि वचन निग्रहस्थान हैं हमारा यह कथन अयुक्त क्यों है ? __ जैन-सुनिये ! "यदि प्रतिज्ञा का प्रयोग अनुपयोगी है तब तो शास्त्रादि में भी उसका प्रयोग नहीं करना चाहिये क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं है।" अर्थात् वादकाल और शास्त्र दोनों में कोई अन्तर नहीं है आपके यहाँ शास्त्र में या अनियत-वीतरागकथा में प्रतिज्ञा नहीं कही जाती है 1 प्रतिवादिनः। 2 दोषान्तरानुद्भावनस्य । (दि० प्र०) 3 प्रतिज्ञोदाहरणादिवचनस्य स्वपक्षसिद्धिविघाताहेतुत्वात् । 4 तेन स्वपक्षसिद्धी। इति पा० । (दि० प्र०) 5 परपक्षनिराकरणे। 6 प्रतिबन्धकमित्युक्तं बोद्धव्यम् । इति पा० । (ब्या० प्र०) प्रतिबन्धकमिति बोद्धव्यम् । इति पा० । (दि०प्र०) 7 न तद्युक्तमिति भाष्योक्तं सुव्यवस्थितम् । 8 परः । निगमन । (दि० प्र०) 9 पर्वतोऽयमग्निमान् इति । (दि० प्र०) 10 प्राक्तनसमनन्तरभाष्यसामर्थ्य विवरणरूपेण प्रतिज्ञावचनं न दोषावहमित्युक्ता पुनरिदानीमूत्तरभाष्यानुसारेण प्रतिज्ञावचनं दोषावहमित्यत्र दूषणान्तरमुभावयन्तीति यावत् । (दि० प्र०) 11 यदि वादे प्रतिज्ञा निरर्थका तदा शास्त्रादिष्वपि न प्रतिपाद्यते । (दि० प्र०) 12 अनियतकथा । (ब्या० प्र०) 13 वादशास्त्रयोः। 14 स्याद्वादी । यदि प्रतिज्ञानुपयोगिनी अनुपकारिणी भवति तदा शास्त्रकारैः शास्त्रादिष्वपि नाङ्गीक्रियेत । शास्त्रे वादे चोभयत्र विशेषो नास्ति । (दि० प्र०)
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