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उभयकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद
[ २५१ योरैकात्म्यं श्रेयः स्याद्वादं विद्विषां', सदसतोः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणविरोधात्', जात्यन्तरस्यैव दर्शनेन' सर्वथोभयकात्म्यस्य बाधनात्तद्वत् ।
[ परस्परनिरपेक्षसदसदुभयकात्म्यं मन्यमानस्य सांख्यस्य निराकरणं । ] तथा सांख्यस्यैवमुभयैकात्म्यं ब्रुवतस्त्रैलोक्यं व्यक्तेरपति, नित्यत्वप्रतिषेधात,' अपेतमप्यस्ति, विनाशप्रतिषेधादिति वा 'तदन्यथा पेतमन्यथा'स्तीति2 स्याद्वादावलम्बन
अतएव स्याद्वाद के विद्वेषी एकांतमतावलंबियों का उभयकांतरूप मत भी श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि सत् और असत् में परस्पर में परिहार-स्थितिलक्षण विरोध पाया जाता है, अतः जात्यंतररूप कथंचित्-भावाभावात्मक दर्शन के द्वारा सर्वथा उभयकात्म्य में बाधा आती है, जैसे कि सर्वथा भावैकांत में अथवा सर्वथा अभावैकांत में कथंचितरूप स्याद्वाददर्शन से बाधा आती है। अर्थात् सत् असत् का परिहार करके ही रहता है और असत् सत् का परिहार करके ही रहता है। ये दोनों परस्पर में विरोधी हैं, क्योंकि कथंचित्रूप स्याद्वाद की मान्यता से परस्परनिरपेक्ष उभय का सद्भाव बाधित ही है।
[ परस्पर निरपेक्ष सत्-असत् दोनों को मानने वाले सांख्य का खण्डन ] उसी प्रकार से सांख्य भी उभयकात्म्य को स्वीकार करते हुये व्यक्ति से तीनों लोकों को दूर कर देता है । अर्थात् यह त्रैलोक्य महान् एवं अहंकार आदि विकाररूप से अभिव्यक्त होता है और उसका उसी में तिरोभाव हो जाता है । अतः नित्यत्व का प्रतिषेध हो जाता है अथवा प्रकृतिरूप से रहने पर वह अपेत-विनष्ट होने पर भी अस्तित्वरूप से रहता है । अर्थात् नष्ट होने पर भी कथंचित नित्य है, क्योंकि विनाश का प्रतिषेध पाया जाता है। यदि आप कहें कि वह अन्यरूप से विनष्ट है एवं . अन्यरूप से अस्तिरूप है, तब तो यह कथन तो स्याद्वाद सिद्धांत का ही अवलम्बन करते हुये 'अंध सर्प बिल प्रवेश न्याय' का अनुसरण कर रहा है। अर्थात् इस उपर्युक्त कथन से तो परस्परनिरपेक्ष भावाभावैकांत की सिद्धि न होकर प्रत्युत स्याद्वादसिद्धांत ही पुष्ट होता है, क्योंकि स्याद्वादसिद्धांत में भी किसी अपेक्षा अभाव एक ही पदार्थ में प्रकट किये जाते हैं।
भावार्थ-सांख्य ने प्रकृति और पुरुषरूप से दो तत्त्व माने हैं, उसमें पुरुष को अकर्ता, निर्गुण, निष्क्रिय और कूटस्थनित्य सिद्ध किया है और प्रकृति को प्रधान शब्द से भी कहा है। उस प्रधान के भी दो भेद कर दिये हैं, एक व्यक्त दूसरा अव्यक्त। व्यक्त प्रधान से ही महान्- बुद्धि, अहंकार आदि उत्पन्न होते हैं तथा अव्यक्त प्रधान कार्यकारणभाव से रहित, नित्य, सर्वव्यापी, एक और निष्क्रिय है । सांख्य कहता है कि व्यक्त प्रधान से ही सारा विश्वरूप कार्य आविर्भूत-प्रकट होता है । पुनः सृष्टि के प्रलयकाल में क्रम-क्रम से इन्द्रिय तन्मात्राएँ आदि जिससे उत्पन्न हुये हैं, उसी में विलीन होते-होते
1 भट्टानाम् । (ब्या० प्र०) 2 यसः । (ब्या० प्र०) 3 अन्यथा स्वरूपेण सत्त्वस्यासत्त्वस्य च प्रसंगाज्जात्यन्तरस्यैव दर्शनेन सर्वथोभयकात्म्यस्य वाधनादिति भावः । वस्तुनः । (दि० प्र०) 4 प्रत्यक्षेण । (दि० प्र०) 5 शून्यावबोधवत् । (दि० प्र०) 6 अग्रे वक्ष्यमाणप्रकारेण । (दि० प्र०) 7 असद्रूपतामुपव्रजेत् अदृश्यतामित्यर्थः। (दि० प्र०) 8 तिरो. भावात् । (दि० प्र०) 9 त्रैलोक्यम् । (दि० प्र०) 10 इदमग्रे स्थितस्याद्वादविवरणं प्रतिपत्तव्यं ततो न पौनरुक्त्यम् । (दि० प्र०) 11 स्वरूपशून्यम् । (दि० प्र०) 12 अव्यक्तरूपेणास्ति । (दि० प्र०)
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