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शेषभंग की सिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
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बहुत्वविशिष्टमाचष्टे, तथा सामर्थ्यादन्यथा शब्दव्यवहारानुपपत्तेः । ननु च वृक्षा इति प्रत्ययवती प्रकृति: पदम् । तस्य वाच्यमनेकमेकं च स्याद्वादिभिरिष्यते, न पुनरेकमेव । तथा' चोक्तम्
"अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्याः।" इति कश्चित्, सोप्येवं. प्रष्टव्यः, किमेकमनेकं च सकृत्प्रधानभावेन पदस्य वाच्यमाहोस्विद्गुणप्रधानभावेन ? इति । न तावत्प्रथमः पक्षः, तथा प्रतीत्यभावात् । वृक्षद्रव्यं हि वृक्षत्वजातिद्वारेण वृक्षशब्द: प्रकाशयति ततो लिङ्ग संख्यां चेति शाब्दी प्रतीतिः क्रमत एव । तदुक्तं
विद्यमान है, अन्यथा शब्द व्यवहार नहीं बन सकेगा। अर्थात् “स्वाभाविकत्वादभिधानस्य कशेषानारम्भः" इस जैनेन्द्रसूत्र के अनुसार जैनाचार्य एकशेष समास को नहीं मानते हैं वे प्रत्येक शब्द में स्वाभाविक ही अनेकशक्तियाँ मानते हैं।
शंका-'वृक्षाः' यह पद प्रत्ययवर्ती प्रकृति है और इस पद का वाच्यार्थ अनेक एवं एक भी है, ऐसा आप स्याद्वादियों ने स्वीकार किया है, किन्तु एकान्ततः एक ही वाच्यार्थ है, ऐसा तो आप नहीं मानते हैं उसी तरह कहा भी है
श्लोकार्थ – वृक्ष यह शब्द प्रकृतिरूप है इसमें 'जस्' प्रत्यय के जोड़ने से प्रत्ययसहित यह पद 'वृक्षाः' बहुवचनांत हो जाता है। अतएव एक ही पद का वाच्यार्थ अनेक भी है, और एक भी है, क्योंकि यह वृक्ष पद सामान्यतया एक को और विशेषरूप से अनेक को कहता है । अतएव एक शब्द एक ही अर्थ को कहता है, यह कथन तो आपके ही सिद्धान्त से बाधित हो जाता है ।
समाधान- इस शंका के करने पर तो हम आपसे पूछते हैं कि जो एक पद का वाच्य अर्थ एक और अनेक है वह युगपत् प्रधान भाव से है अथवा गौण एवं प्रधानभाव से है ? यदि आप प्रथमपक्ष लेवें कि शब्द युगपत् ही प्रधानतया एक और अनेक अर्थ को कहता है तब तो ठीक नहीं है क्योंकि वैसी प्रतीति का अभाव है। वृक्षशब्द वृक्षत्व - सामान्यरूप जाति के द्वारा वृक्षद्रव्य को प्रकाशित करता है पश्चात् लिंग और एकवचन द्विवचन आदि संख्या को प्रकाशित करता है इस प्रकार से शब्द से होने वाली प्रतीति क्रम से ही होती है । कहा भी है
1 उक्तञ्च इति पा० । (दि० प्र०) 2 अवक्तव्यं भंगो मास्तु निष्पर्यायं भावाभावावभिदधते इति चोद्यं निराकरोत्यग्ने । (ब्या० प्र०) 3 व्यक्तिरूपम् । (ब्या० प्र०)
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