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शेषभंग की सिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
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शक्त्योरनतिलङ्घनार्हत्वात्कारणकार्यवदित्य नवद्यम् ।
अन्यथाऽचाक्षुषत्वादयः' शब्दा
अतः अस्तित्व इस एक धर्म के साथ अन्य अविवक्षितधर्मों की काल की अपेक्षा लेकर अभेदवृत्ति मान ली जाती है।
__ जिस प्रकार अस्तित्व जीव का गुण-स्वभाव है उसी प्रकार और भी अविवक्षित धर्म उसके स्वभाव हैं । इस प्रकार अस्तित्व के साथ आत्मरूप को लेकर अन्य धर्मों की अभेदवृत्ति मानली जाती है।
जिस प्रकार जीवादि वस्तुयें अस्तित्वधर्म के आधार हैं, उसी प्रकार वे अन्य धर्मों के भी आधारभूत हैं । इस अपेक्षा से आधार को लेकर उस अस्तित्व के साथ अन्य अनन्तधर्मों की अभेदवृत्ति मान ली गई है । जीवादिद्रव्यों के साथ अस्तित्वधर्म का तादात्म्यरूप सम्बन्ध है वही सम्बन्ध अन्यधर्मों का भी जीवादिद्रव्यों के साथ है, अतः इस विवक्षा से सम्बन्ध को लेकर अस्तित्व के साथ अन्यधर्मों की अभिन्नता मान ली जाती है । तथैव यह अस्तित्वधर्म स्वानुरक्तत्व करणरूप उपकार भी करता है । इसी तरह अन्य धर्म भी करते हैं, इसी प्रकार से गुणिदेश, संसर्ग, शब्द आदि से भी अभेदवृत्ति घटित कर लेनी चाहिये। __ तथा द्रव्याथिकनय की गौणता और पर्यायाथिकनय की प्रधानता करने पर कालादि की अपेक्षा अभेदवृत्ति नहीं बनती है, कारण कि एक समय में एकस्थान पर अनेकगुण नहीं रह सकते हैं। अनेकगुणों का स्वरूप परस्पर में भिन्न है क्योंकि वह एक दूसरे गुणों में नहीं रहता । इसलिये गुणों में अभेद नहीं हो सकता, यदि गुणों में परस्पर में भेद न हो तो भिन्न-भिन्न नहीं मानना चाहिये। ____ अतएव काल आदि द्वारा अस्तित्व आदि गुणों की एक वस्तु में अभेदवृत्ति असम्भव है। पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से काल आदि से भिन्न इन अस्तित्व आदि गुणों में अभेद का उपचार किया जाता है । इस प्रकार द्रव्याथिकनय से अभेदवृत्ति एवं पर्यायाथिकनय से अभेदोपचार द्वारा अनन्तधर्मवाले पदार्थ को युगपत् कहने वाला 'सकलादेश' अथवा प्रमाणवाक्य कहा जाता है तथा एकदेश से जानी हुई वस्तु को भेदवृत्ति एवं भेदोपचार से कम से कहने वाले वाक्य 'विकलादेश' या नयवाक्य कहलाते हैं। ___इस विवेचन से स्पष्ट है कि पद की तरह प्रत्येक वाक्य भी 'गौण प्रधानार्थ' वाचक हैं सकृत(एकसाथ) अनेक प्रधानार्थवाचक नहीं हैं। शब्द अपने इस स्वभाव को संकेतसहस्र के द्वारा भी त्याग नहीं कर सकता है। यथा कार्य में कार्यपना अपने कारण की अपेक्षा से ही है, अन्यकारणों की अपेक्षा से नहीं, इसी तरह कारण भी अपने कार्य की अपेक्षा से ही माना जाता है, अन्य. कार्य की अपेक्षा से नहीं।
अन्यथा अपेक्षाकृत शक्ति और अशक्ति वाच्य और वाचक में न मानी जावे तो अचाक्षुषत्व आदि
1 अयः । दारुवज्जलेखन । (दि० प्र०) 2 अनन्तरोक्तम् । (दि० प्र०) 3 किमवक्तव्यम् । (दि० प्र०) 4 कारण. कार्ययोः शक्त्यशक्त्यतिक्रमेण । (दि० प्र०) 5 वाचकवाच्य गोयोः शक्त्य शक्त्योरतिलंघनाईत्वे सति । (दि० प्र०)
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