________________
३२ ]
अष्टसहस्री
[ कारिका १६
स्याद्वादाश्रयणव्याख्यानादेवमेव' चरमभङ्गत्रयस्य व्यवस्थानात् । परमतापेक्षया तु सत्सामान्यमन्वयि द्रव्यमाश्रित्य सदवक्तव्यमेव', स्वलक्षणलक्षणं विशेषं 'पर्यायमाश्रित्यान्यापोहसामान्यमसदवक्तव्यमेव, सामान्यविशेषौ परस्परमत्यन्तभिन्नौ द्रव्यपर्यायौ' समुदितौ' समाश्रित्य सदसदवक्तव्यमेवेति व्याख्यानमकलङ्कदेवैय॑धायि ।
"कथञ्चित् सत्अवक्तव्य रूप ही सभी वस्तुयें हैं" इस प्रकार से वचनव्यवहार होता है एवं व्यस्तरूप क्रम से अर्पित और समस्त रूप से यूगपतअर्पित द्रव्य पर्याय का आश्रय लेकर "कञ्चित् सत्असत् अवक्तव्य ही सभी वस्तुयें हैं" इस प्रकार शब्द प्रवृत्ति होती है। स्याद्वाद का आश्रय करके व्याख्यान करने से ही इस प्रकार से अन्तिम तीनों भंगों की व्यवस्था हो जाती है ऐसा श्रीस्वामी समन्तभद्राचार्य का अभिप्राय सिद्ध होता है।
परमत की अपेक्षा से अद्वैतवादियों के यहाँ सत्सामान्यरूप अन्वयिद्रव्य का आश्रय करके "वस्तु सतअवक्तव्य ही है" ऐसा एकान्त कथन है। बौद्धमत की अपेक्षा से स्वलक्षणलक्षण-क्षणिकत्वलक्षण से लक्षित एवं सत्सामान्यरहित विशेषरूप पर्याय को स्वीकृत करके अन्यापोह सामान्यरूप "असत अवक्तव्य ही है" अन्यापोह सामान्य अर्थात् 'अगौः व्यावृत्ति गौः" यहाँ 'गौ' शब्द का अर्थ है गो से भिन्न अन्यों से व्यावृत्त होना, इसी का नाम अन्यापोह है।
एवं यौगमत की अपेक्षा से परस्पर में अत्यन्तभिन्न सामान्य-विशेष और समुदितद्रव्य तथा पर्याय को आश्रित करके "सत् असत् अवक्तव्य ही है।"
भावार्थ-सामान्यरूप सत् अवक्तव्य ही है एवं विशेषरूप से असत् अवक्तव्य ही है, क्योंकि यौगमत में सामान्य को सर्वथा अभिन्न, नित्य एक और सर्वगत माना है इसलिये 'सत् अवक्तव्य ही है' तथा यौग घट पटादि को सर्वथा अनित्य ही मानता है अतएव वस्तु सर्वथा 'असत् अवक्तव्य ही है' इस प्रकार से योगमत में “सत् असत्अवक्तत्व रूप" सातवाँ भंग एकान्त से माना है, ऐसा व्याख्यान अष्टशतीकार श्रीभट्टाकलंकदेव ने किया है। ___ इस प्रकार से अद्वैतवादी के द्वारा मान्य सर्वथा “सत् अवक्तव्य ही तत्त्व है" एवं बौद्धमत की अपेक्षा सर्वथा "असत् अवक्तव्य ही तत्त्व है" तथा यौगमत की अपेक्षा सर्वथा “सत् असत् अवक्तव्य ही तत्त्व है" इन एकान्त मान्यताओं में अनेक दूषण आते हैं उन्हीं को पृथक्-पृथक् दिखाते हैं ।
1 उक्तप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 2 परमतेप्येवमापाद्यसंमति प्रदर्शयति । परमतनिराकरणपुरस्सरेण । (ब्या० प्र०) 3 सदवक्तव्यमेव वस्तु भवति किं कृत्वा आश्रित्य कि द्रव्यं कि विशिष्टं व्यस्तं सामान्यमित्यर्थः किं भूतं सत् विद्यमानं भूयः कि भूतमन्वयीति योज्यम् । (ब्या० प्र०) 4 सांख्यमते एकान्ते न । (दि० प्र०) 5 व्यक्त्यपेक्षयेव सामान्यापेक्षयापि । सर्वथा सामान्यपरहितं विशेषमभ्युपगम्येत्यर्थः । (दि० प्र०) 6 को द्रव्यपर्यायौ कि विशिष्टी समुदिती परस्परतोत्यन्तभिन्नो सामान्य विशेषावित्यर्थः । (दि० प्र०) 7 मिलितो । (दि० प्र०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org