Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 409
________________ ३४० ] [ कारिका १६ दिधर्मा' न भवेयुः । शक्यं हि वक्तुं, 'रूपवच्चक्षुर्ज्ञानजननशक्तियुक्तः शब्दश्चाक्षुष एव, रसवच्च रसनज्ञानजननसमर्थो रासनो, गन्धादिवच्च घ्राणादिज्ञानजननपटुर्घाणीयादि:' इति न तस्या - चाक्षुषत्वा रासनत्वाघ्राणीयत्वादयो धर्माः स्युः, अश्रावणत्वादयश्च रसादिधर्मा न भवेयुः । अतो यावन्ति पररूपाणि तावन्त्येव प्रत्यात्मं स्वभावान्तराणि ', तथा परिणामात्, शब्दादीनामन्यथा' स्वरूपायोगात् । यदि पुनश्चक्षुरादिविज्ञानोत्पादनाऽशक्त्यतिक्रमस्य सर्वदाप्यसंभवादचाक्षुषत्वादयः शब्दादिधर्मा एव श्रावणादिज्ञानजननशक्त्यनतिक्रमाच्छ्रावणत्वादिवदिति अष्टसहस्री शब्दादि के धर्म नहीं हो सकेंगे । अर्थात् शब्द में अचाक्षुषता तो इसीलिये है कि वह रूप के समान चाक्षुषज्ञानजननशक्ति से विकल है। ऐसा हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार रूप चक्षु के ज्ञानजननशक्ति से युक्त है, उसी प्रकार शब्द भी चक्षु के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति युक्त चाक्षुष - चक्षुइन्द्रिय का विषय ही है, तथा वह शब्द रस की तरह रसनज्ञानजनन समर्थ होने से रसना इन्द्रिय का विषय है । एवं गंधादि की तरह घ्राणादि ज्ञान को उत्पन्न करने में पटु है, अतएव वह शब्द घ्राणादिइन्द्रिय का विषय है । इस प्रकार उस शब्द में अचाक्षुषत्व, अरासनत्व, अघ्राणीयत्वादि धर्म नहीं हैं, अन्यथा श्रावणत्व आदि और रसादि धर्म भी नहीं हो सकेंगे । भावार्थ - जैसे रूप चाक्षुषज्ञानजननशक्ति युक्त है, अतएव वह चक्षु इन्द्रिय का विषय है । उस तरह शब्द में यह शक्ति नहीं है अतः वह चाक्षुष नहीं है । इसी प्रकार वह शब्द रसना इन्द्रिय का विषय भी नहीं है क्योंकि यदि उसमें रस की तरह रसज्ञानजनन की शक्ति होती तो वह रसना इन्द्रिय का विषय होता । इसी तरह वह गंधादि के समान घ्राणादिज्ञानजननपटु भी नहीं है, अतः घ्राणइन्द्रिय आदि का भी विषय नहीं है । इस तरह शब्द में भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा अविषय होने की अपेक्षा अचाक्षुषत्व, अरासनत्व, अघ्राणीयत्वादि धर्म सिद्ध होते हैं । तथा कर्णेन्द्रियज्ञानजननशक्ति की अपेक्षा उसमें कर्ण का विषयपना भी सिद्ध है । अतएव जब शब्द में शक्ति और अशक्ति को उलंघन न करने वाले अचाक्षुषत्व आदि एवं चाक्षुषत्व धर्म सिद्ध हैं तब सत्आदि पद भी एक अपने धर्म को प्रतिपादन करने रूप अशक्ति से युक्त हैं। अपनी शक्ति और अशक्ति का उलंघन नहीं करते हैं । I अतएव जितने पररूप हैं उतने ही शब्द शब्द के प्रति वाच्य वाचकलक्षण भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं क्योंकि उसी प्रकार से उन शब्दों का परिणाम देखा जाता है । अन्यथा शब्दादिकों का कोई स्वरूप ही नहीं बन सकेगा । यदि आपका ऐसा मत है कि चक्षुआदि विज्ञान के उत्पादन की अशक्ति का कभी भी उलंघन नहीं 1 स्वरूपाः । ( दि० प्र० ) 2 प्रत्येकं भिन्नानीत्यर्थः । ( दि० प्र० ) 3 भाष्योक्तप्रकारविपरीतत्वेन । ( ब्या० प्र० ) 4 शब्दस्य । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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