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अष्टसहस्री
[ कारिका १६
भावः प्रसज्येत । सामान्यवादिनां तदभ्युपगममात्रात्सदप्यवक्तव्यमेव सामान्यम् ।
[ विशेषरूपमेकं सदवक्तव्यमेव तत्त्वमिति मन्यमानस्य बौद्धस्य निराकरणं ] तथा स्वलक्षणकान्तवादिनां' न स्वलक्षणं वाच्यं, तस्यानन्त्यात्संकेताविषयत्वादनन्वयाच्छब्दव्यवहारायोग्यत्वात् ।
[ स्वलक्षणं वाच्यं नास्ति किंतु सामान्यं तु वाच्यमेवेति मन्यमानस्य बौद्धस्य निराकरणं ] न चान्यापोहः सर्वथार्थः शब्दस्य विकल्पस्य वा, स्वविषयविधिनिरपेक्षस्य गुणभावेनाप्यन्यापोहस्य' शब्देन वक्तुमशक्तेविकल्पेन च निश्चयनायोगात्' । साधनवचनमेव
अतएव सामान्यवादी-नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, भाट्ट, प्राभाकरों की मान्यता के अनुसार उनकी स्वीकृति मात्र से “सत् भी अवक्तव्य ही है" और वह सामान्य तत्त्वरूप है इसका प्रतिपादन करके दोष दिखाये गये हैं।
[विशेषरूप ही एक 'असत् अवक्तव्य' को मानने वाले बौद्धों का खण्डन ] उसी प्रकार से स्वलक्षणकांतवादी बौद्धों का भी स्वलक्षण वाच्य नहीं है, क्योंकि वह अनंत है और अनंत भी क्यों है ? तो वह 'संकेत का विषय नहीं है। संकेत का विषय क्यों नहीं है ? तो वह अनन्वयरूप है। अनन्वयरूप क्यों है ? तो वह शब्द व्यवहार का अविषय है। ऐसे आगे-आगे के हेतुओं में पूर्व-पूर्व के हेतु कारण बन जाते हैं।
[ स्वलक्षण वाच्य नहीं, किन्तु सामान्य तो वाच्य है ऐसा बौद्ध के कहने पर ही आचार्य उत्तर देते हैं ]
शब्द का अथवा विकल्पज्ञान का अर्थ सर्वथा अन्यापोह मात्र नहीं है क्योंकि स्वविषय की विधि से निरपेक्ष अन्यापोह का गौणरूप से भी शब्द के द्वारा कथन नहीं हो सकता है, न विकल्प ज्ञान के द्वारा ही उस अन्यापोह का निश्चय हो सकता है।
भावार्थ-अन्यापोह का अर्थ है अन्य का अपोह-अभाव करके वस्तु को कहना यथा किसी ने गौः शब्द कहा तो उसका अर्थ यह हुआ कि “अगौः व्यावृत्ति: गौः' अर्थात् 'अगौः' -अश्व, भैस आदि से व्यावृत्त भिन्न अर्थ का बोध हुआ किन्तु प्रतीति में तो ऐसा नहीं आता है कि सभी विशेषों को
1 सर्वाभाव: प्रसज्यते इति साध्यं स्वरूपसंकरात् प्रतिनियतस्वभावहाने रवश्यं भावादिति । (दि० प्र०) 2 सामान्यवादीनामङ्गीकरणमात्रात्सामान्यं विद्यमानमप्यवाच्यम् । (दि० प्र०) 3 सौगतानाम् । (दि० प्र०) 4 परार्थानुमानरूपस्य स्वार्थानुमानज्ञानरूपस्य । (दि० प्र०) 5 अस्तित्व । (दि० प्र०) 6 यथा मुख्येन नास्ति तथा गुणभावेनापि । (दि० प्र०) 7 नास्तित्वस्य । (दि० प्र०) 8 यत्सत्तत्सर्व क्षणिकम् । (दि० प्र०) 9 अन्यापोहस्य ज्ञानेन निश्चेतुमशक्यत्वात् । (दि० प्र०)
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