Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 403
________________ अष्टसहस्री [ 'वृक्षौ' इत्यादि शब्दाः द्विवृक्षादिकं कथं बुवन्ति, अस्य विचारः । ] कथमेवं वृक्षाविति पदं व्यर्थं वृक्षा इति च बह्वर्थमुपपद्यते इति चेत् केषाञ्चिदेकशेषारम्भात् परेषां स्वाभाविकत्वादभिधानस्येति संगिराम हे ' । तत्रैकशेषपक्षे द्वाभ्यामेव वृक्षशब्दाभ्यां वृक्षद्वयस्य, बहुभिरेव च वृक्षशब्दैर्बहूनां वृक्षाणामभिधानान्नैकस्य शब्दस्य सकृदनेकार्थविषयत्वं, शिष्टलुप्तशब्दयोः सारूप्याद' भिधेयसाम्याच्चैकत्वोपचारादेकशब्दप्रयोगोपपत्तेः । स्वाभाविकत्वे' त्वभिधानस्य, वृक्षशब्दो द्विबहुवचनान्त: स्वभावत एव स्वाभिधेयमर्थं द्वित्व ३३४ ] तथैव यूथ, पंक्ति, माला, पानक, ग्राम आदि शब्द भी अनेक अर्थ का प्रतिपादन करते हैं इस बात का खण्डन कर दिया गया समझना चाहिये । [ कारिका १६ [ 'वृक्षी' इत्यादि शब्द दो वृक्ष आदि को कैसे कहते हैं ? इस पर विचार ] शंका- - इस प्रकार से पुन: 'वृक्षौ' यह शब्द दो वृक्षरूप अर्थ को एवं 'वृक्षाः ' यह शब्द बहुत से वृक्षों को किस प्रकार से कहते हैं ? समाधान- यह आपका प्रश्न ठीक है कोई-कोई पाणिनिआचार्य ( व्याकरण कर्ता) आदि एकशेष समास के द्वारा दो वृक्षों से ही द्विवचनरूप 'वृक्षौ' पद एवं बहुत से वृक्षों के समास से ही बहुवचनरूप 'वृक्षा:' पद को स्वीकार कर उसके द्वारा द्विवचन एवं बहुवचन का बोध मान लेते हैं किन्तु जैनाचार्य - पूज्यपादस्वामी आदि (जैनेन्द्रव्याकरण के कर्ता) शब्द में स्वाभाविक ही वैसी शक्ति मानते हैं, एवं प्रत्यय के द्वारा व्यक्ति स्वीकार करते हैं । उसमें पाणिनि आदि के मत में एकशेषपक्ष मैं दो ही वृक्ष शब्दों के द्वारा दो वृक्षों का एवं बहुत ही वृक्ष शब्दों के द्वारा बहुत से वृक्षों का बोध मानते हैं । इसलिये एक शब्द ही एक साथ अनेकार्थ को विषय करने वाला नहीं है, क्योंकि शिष्ट और लुप्त शब्द में समानता के होने से और वाच्य भी सदृश होने से तथा एकत्व के उपचार ही एक शब्द का प्रयोग किया जाता है । 1 भावार्थ- पाणिनिव्याकरण में एकशेष समास माना है, जैसे वृक्षश्च वृक्षश्च 'वृक्षवृक्षों' पुनः 'स्वरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ' सूत्र के अनुसार सदृश शब्दों में या सभी शब्दों का लोप कर एक ही शेष रखना चाहिये, अतः 'वृक्षौ' यह पद सिद्ध हुआ तथैव बहुवचन में वृक्षश्च वृक्षश्च 'वृक्षा:' बन जाता है जो कि लुप्त हुये वृक्ष शब्दों का भी कथन करने वाला होता है । अत: इन शब्दों में एकत्व के उपचार से एकशब्द का ही प्रयोग सिद्ध है । एवं जैनेन्द्रव्याकरण के अनुसार शब्द में स्वाभाविक शक्ति के मानने पर वृक्ष शब्द द्विवचनांत एवं बहुवचनांत स्वभाव से ही ( द्रव्य की अपेक्षा से ) अपने वाच्य अर्थ को द्विवचनरूप और बहुवचनरूप विशिष्ट कहता है क्योंकि उस शब्द में एकत्व, द्वित्व, बहुत्व से विशिष्ट कथन करने की सामर्थ्य 1 प्रतिज्ञां कुर्महे । ( व्या० प्र०) 2 एकशेषारम्भस्वाभाविकत्वयोः । ( दि० प्र० ) 3 अर्थे । ( दि० प्र० ) 4 विशेषे । ( दि० प्र० ) 5 वृक्षद्रव्यमेकम् | ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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