Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 401
________________ ३३२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १६ स्यादिति शब्दस्य च वाचकस्यानेकान्तमात्रवचने' सामर्थ्य विशेषो, न पुनरेकान्तवचने तस्यैव द्योतकस्याविवक्षिताशेषधर्मसूचने सामर्थ्यविशेषो, न पुनर्विवक्षितार्थवचने', तद्वाचकशब्दप्रयोगवैयर्थ्यप्रसक्तेः । न चैवं विधिवचनसूचनसामर्थ्य विशेषमतिक्रम्य प्रवर्तमानः शब्दः प्रसिद्धवृद्धव्यवहारेषुपलभ्यते यतो निष्पर्यायं भावाभावावभिदधीत । स्यान्मतं 'यथासङ्कतं शब्दस्य प्रवृत्तिदर्शनात्सह सदसत्त्वधर्मयोः संकेतितः शब्दस्तद्वाचको न विरुध्यते' संज्ञाशब्दवत्, इति तदयुक्तं, सङ्कतानुविधानेपि' कर्तृकर्मणोः "शक्त्यशक्त्योरन्यतरव्यपदेशाहत्वादयोदारुवज्रलेखनवत् । न हि यथायसो दारुलेखने कर्तुः शक्तिस्तथा वज्रलेखनेस्ति, यथा वज्रलेखने ___भावार्थ -प्रथम भंग में प्रधानतया सत्त्व विवक्षित है। द्वितीय भंग में प्रधानतया असत्त्व विवक्षित है। एवं तृतीय भंग में क्रमशः सत्त्व और असत्त्व ये दोनों ही धर्म मुख्यतया विवक्षित हैं। अतः सत्त्व अपने अर्थ का एवं असत्त्व अपने अर्थ का क्रमशःप्रधानरूप से प्रतिपादन करते हैं, इस नियम के अनुसार सभीवाक्य एक क्रिया की प्रधानता से एक अर्थ को ही विषय करने में प्रसिद्ध हैं। अतएव शब्द स्वभावतः एक ही अर्थ को निवेदन करने की शक्तिवाले हैं यह बात सिद्ध हो गई, क्योंकि प्रत्येक शब्द अपने-अपने नियतअर्थ को सूचन करने की सामर्थ्य का उलंघन नहीं कर सकते हैं। 'सत' इस शब्द की सत्त्वमात्र के कहने में सामर्थ्य विशेष है किन्तु असत् आदि अनेक धर्मों के कहने में सामर्थ्य नहीं है एवं अनेकान्त वाचक 'स्यात्' इस शब्द की अनेकान्तमात्र को कहने में ही सामर्थ्य विशेष है एकांतवचन को कहने में नहीं है और द्योतकपक्ष में उसी अनेकान्त द्योतकरूप स्यात' शब्द की अविवक्षित अशेष धर्मों के सूचन करने में शक्ति है किन्तु विवक्षितअर्थ के सूचन करने में नहीं है। अन्यथा उस विवक्षितधर्म के वाचक शब्दों का प्रयोग व्यर्थ ही हो जावेगा। अर्थात् 'स्यात' शब्द के वाचक और द्योतकपक्ष की अपेक्षा से दो भेद हैं । वाचक पक्ष में स्यात्' शब्द अपने अनेकांत अर्थ को कहने वाला है और द्योतकपक्ष में अविवक्षित-गौणरूप अशेषधर्मों को सूचित करने वाला है। इस प्रकार से विधिवचन को सूचन करने की सामर्थ्य विशेष का उलंघन करके प्रवृत्त हुआ शब्द प्रसिद्ध वद्ध व्यवहार की परम्परा में उपलब्ध नहीं होता है, कि जिससे निष्पर्याय-युगपत भावाभाव को कोई शब्द कह सके, अर्थात् प्रत्येक शब्द अपने-अपने नियत अर्थ को सूचनकरने की सामर्थ्य से युक्त है वे शब्द इस सामर्थ्य का उलंघन करके जगत् के व्यवहार में प्रवृत्ति नहीं करते हैं अतएव शब्द युगपत् भावाभावरूप दो धर्मों को कहते हैं, यह आग्रह गलत ही है, क्योंकि उसमें वैसी शक्ति ही नहीं है। 1 संकेतितत्वाद्वाचकः । (ब्या० प्र०) 2 अनेकान्तमात्रस्य द्योतको न तद्विशेषस्य । (ब्या० प्र०) 3 सदादि । (ब्या० प्र०) 4 व्यवह्रियमाणः । (दि० प्र०) 5 प्रमाणसिद्धपूर्वाचार्यव्यापारेषु । (दि० प्र०) 6 हेतुः । (दि० प्र०) 7 अव्यक्तभंगो मास्तु । (ब्या० प्र०) 8 यथा स्वरशब्देन न चतुर्दशस्वराः । (ब्या० प्र०) 9 विशेषोस्ति । (ब्या० प्र०) 10 शक्तिमतः । (ब्या० प्र०) 11 ता । कर्मणः । (दि० प्र०) Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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