Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

Previous | Next

Page 400
________________ शेषभंग की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३३१ विलोपात् । एतेनैकस्य वाक्यस्य युगपदनेकार्थविषयत्वं प्रत्याख्यातं स्यात्सदसदेव सर्वं स्वपररूपादिचतुष्टयाभ्यामिति वाक्यस्यापि 'क्रमापितोभयधर्मविषयतयोररीकृतस्योपचारादेवैकत्वाभिधानात् । 'तत्रोभयप्राधान्यस्य क्रमशो विवक्षितस्य सदसच्छब्दाभ्यां द्वन्द्ववृत्तौ तद्वाक्ये वा स्वपदार्थप्रधानाभ्यामभिधानाद्वा' न दोषः, सर्वस्य वाक्यस्यैकक्रियाप्रधानतयैकार्थविषयत्वप्रसिद्धे:10 । सिद्धमेकार्थनिवेदनशक्तिस्वभावत्वं| शब्दस्य, 12वचनसूचनसामर्थ्य विशेषानतिलङ्घनात्। । सदितिशब्दस्य हि सत्त्वमात्रवचने 4 सामर्थ्य विशेषो, नासत्त्वाद्यनेकधर्मवचने, जावेगा । तथा च प्रत्येक पदार्थों को स्वतन्त्ररूप से प्रतिपादन करने के लिये प्रयुक्त होने वाले अनेक शब्दों का प्रयोग निष्फल निष्फल ही हो जावेगा। अर्थात घट, पट, दीपक आदि अनेक पदार्थों को कहने के लिये अनेक शब्दों के प्रयोग की कोई आवश्यकता नहीं रह सकेगी। अतएव जितने अर्थ हैं, उनके प्रतिपादन करनेवाले शब्द भी उतने ही हैं ऐसा स्वीकार करना चाहिये क्योंकि जिस प्रकार शब्दभेद से निश्चित ही अर्थभेद है उसी प्रकार से अर्थभेद से भी शब्द भेद सिद्ध ही है। अन्यथा वाच्य-वाचक नियम के व्यवहार का लोप हो जावेगा इसी कथन से एक वाक्य युगपत् अनेक अर्थ को विषय करता है इस कथन का भी खण्डन कर दिया गया समझना चाहिये । शंका--स्वपर रूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तु कथंचित् सत्-असत्रूप ही हैं, इस तृतीय भंगरूप वाक्य से तो एक साथ सत् और असत्रूप इन दोनों धर्मों का प्रतिपादन हो जाता है, अतः एक वाक्य अनेकार्थ को विषय करनेवाला सिद्ध हो जाता है। ___ समाधान नहीं, इस तृतीय भंगरूप वाक्य में क्रम से अर्पित उभय धर्म विषयभूत हैं, ऐसा स्वीकार करने से काल प्रत्यासत्ति की अपेक्षा से उपचार से ही एकत्व का कथन किया गया है, अतएव यह तृतीय भंग का वाक्य भी अपने अर्थ का क्रम से प्रतिपादन करता है, युगपत् नहीं। शंका-तृतीय भंग में “सदसत्" शब्द में द्वन्द्व समास है, इसमें उभयपदार्थ प्रधान है अतः यह क्रमश: अर्थ का प्रतिपादक न होकर उभय पद का प्रधानरूप से युगपत् ही प्रतिपादक है। समाधान नहीं, इसमें 'सत् असत्' शब्द के द्वारा क्रमशः दोनों की प्रधानता विवक्षित है। अथवा इस वाक्य में द्वन्द्व समास के होने पर भी दोनों ही पदार्थ अपनी-अपनी अपेक्षा से प्रधान हैं अतएव ऐसा कथन करने में कोई भी दोष नहीं है। 1 तिङ्सुबन्तचयो वाक्यं तस्य । (दि० प्र०: 2 सर्वथा । मीमांसकाभिमतम् । (ब्या० प्र०) 3 अभिमननात् इति पा० । (दि० प्र०, ज्या० प्र०) 4 तदुभय इति पा० । (दि० प्र०) सदसदत् । (दि० प्र०) 5 प्राधान्यरूपैकार्थस्य । (ब्या० प्र०) 6 वाक्यस्य । क्रमविवक्षया ज्ञानस्येत्यभिप्रायः । (दि० प्र०) 7 द्वन्द्वसमासे । (ब्या० प्र०) 8 एकस्मिन् वाक्ये सति । (ब्या० प्र०) वाक्यादिति पा० । (दि० प्र०) 9 शब्दाभ्याम् । (दि० प्र०) 10 युगपदनेकार्थं विषयत्वं प्रत्याख्यातमित्यस्मिन्साध्ये हेत्वन्तरमेतत्प्रसिद्धश्चेति द्रष्टव्यम् । (ब्या० प्र०) 11 शक्तेः इति पा० । (दि० प्र०) 12 वाचकत्वं सत् शब्दस्य । (ब्या० प्र०) 13 द्योतकत्वं स्यात् शब्दस्य । (ब्या० प्र०) 14 प्रतिपादने । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494