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अष्टसहस्री
[ कारिका १५
येव स्वरूपाद्यपेक्षयापि वाऽसत्त्वप्रसक्तेः । न चापेक्षाभेदात् क्वचिद्धर्मभेदप्रतीतिर्बाध्यते', बदरापेक्षया बिल्वे स्थूलत्वस्य मातुलिङ्गापेक्षया सूक्ष्मत्वस्य च प्रतीतेर्बाधकाभावात्' । सर्वस्यापेक्षिकस्यावास्तवत्वे' नीलनीलतरादेः' सुखसुखतरादेश्चावास्तवत्वापत्तेर्विशदविशदत रादिप्रत्यक्षस्यापि कुतस्तात्त्विकत्वं यतो' न संविदद्वैतप्रवेश: 7 ? स चायुक्त एव तद्व्यवस्थापका
भावात् ।
ततः स्यात्सदसदात्मकाः पदार्थाः सर्वस्य सर्वाकरणात् । न हि पटादयो घटादिवत्क्षीराद्याहरणलक्षणामर्थक्रियां कुर्वन्ति घटादिज्ञानं वा । तदुभयात्मनि " दृष्टान्तः" सुलभः, सर्वप्रवा
क्योंकि सभी आपेक्षिक को यदि अवास्तविक मानोगे तब तो नील एवं नीलतर आदि तथा सुख एवं सुखतर आदि भी अवास्तविक हो जायेंगे । तथा प्रत्यक्ष में भी जो विशद विशदतरादि धर्म प्रतीति सिद्ध हैं वे भी वास्तविक कैसे हो सकेंगे ? जिससे कि आपकी मान्यता में संवेदनद्वैत का प्रवेश न हो जावे । अर्थात् पुनः आप संवेदनाद्वैतवादी ही बन जायेंगे ।
परन्तु यह तो आपके लिये अयुक्त ही है । क्योंकि उस संवेदनद्वैत के व्यवस्थापक प्रमाणों का अभाव है ।
इसीलिये एक ही वस्तु में सत्व एवं असत्व का भेद सिद्ध हो जाने पर " स्यात्सत्, असत् रूप ही सभी पदार्थ" सिद्ध हो जाते हैं क्योंकि सभी वस्तुयें सभी कार्य करते हुये नहीं देखो जाती हैं ।
घटादि की तरह पटादिक वस्तु क्षीरादि आहरण-धारण, लक्षण अर्थ क्रिया को नहीं कर सकते हैं अथवा न वे घटादि ज्ञान को भी उत्पन्न कर सकते हैं । अतएव वस्तु को अस्तित्व एवं नास्तित्व धर्म से विशिष्ट उभयात्मक मान लेने पर दृष्टान्त सुलभ ही है ।
सभी प्रवादी जनस्वरूप से अपने इष्ट तत्त्व का अस्तित्व एवं अनिष्टरूप से उसी इष्ट तत्त्व में नास्तित्व स्वीकार करते ही हैं। किसी को भी इसमें विवाद नहीं है और उसी में दृष्टान्त भी सुघटित ही है । अर्थात् प्र िवादी लोग भी अपने इष्ट तत्त्व को स्वरूप से ही सत्रूप मानते हैं पर रूप से नहीं । इस विषय में किसी को भी विवाद होने जैसी बात नहीं है ।
भावार्थ - जीव में जीवित रहने का अस्तित्व ही न जीवित रहने का नास्तित्व है, जीव में स्व का अस्तित्व ही तो पर का नास्तित्व है अतः अस्ति नास्ति ये दो भंग क्यों कहे ? क्योंकि एक भंग
1 पररूपचतुष्टयस्य । (दि० प्र०) धर्मस्य । ( ब्या० प्र० ) 2 आशंक्य । ( दि० प्र०) वस्तुनि । दि० प्र० ) 3 ता । ( ब्या० प्र० ) 4 धर्मस्तु द्विविधः । आपेक्षिको मिथ्या चेति अपेक्षामपेक्ष्यप्रवृत्तोऽन्यस्तु काच कामलमपेक्ष्य प्रवृत्तः । धर्मस्य | ( ब्या० प्र० ) 5 नीलनीलेतरादेः सुखसुखेतरादेश्चावास्तवत्वापत्तेर्विशदविशदेत रादिप्रत्यक्षस्यापि कुतस्तात्त्विकत्वमितिपाठः । ( दि० प्र० ) 6 कुतः । ( दि० प्र०) 7 सकलभेदाभावे ज्ञानमात्रमवशिष्यते यतः । ( दि० प्र० ) 8 प्रमाणम् । ( दि० प्र० ) 9 कथञ्चित् । ( दि० प्र०) 10 वस्तुनि वक्तुम् । (दि० प्र० ) 11 स तु दृष्टान्तः कः इत्याशंकायां तदुभयात्मनि वस्तुनि सर्वप्रवादिनां स्वेष्टतत्त्वमेव दृष्टान्त इत्याह । ( दि० प्र० )
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