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अस्तिनास्ति भंग ]
प्रथम परिच्छेद
[ ३१७
दिनां स्वेष्टतत्त्वस्य स्वरूपेण सत्त्वेऽनिष्टरूपेणासत्त्वे च विवादाभावात् तस्यैव च दृष्टान्ततोपपत्तेः ।
[ एकस्मिन् वस्तुनि सत्त्वासत्त्वधौं परस्परविरुद्धौ स्तः कथं स्यातामस्य विचार: ] ननु चैकत्र वस्तुनि सत्त्वमसत्त्वं च युक्तिविरुद्धं, परस्परविरुद्धयोधर्मयोरेकाधिकरणत्वायोगात्, शीतोष्णस्पर्शवद्भिन्नाधिकरणत्वप्रतीतेरिति चेन्न, तयोः कथञ्चिदर्पितयोविरुद्धत्वासिद्धेस्तथा प्रतिपत्तिसद्भावाच्च। शाब्देतरप्रत्यययोरेकवस्तुविषययोरेकात्मसमवेतयोः' कारण
से ही तो बोध हो जाता है। ऐसा किसी बुद्धिजीवी पुरुष का कथन है । प्रारम्भ में बिना विचार किये यह बात बिल्कुल ठीक लगती है किन्तु जब आचार्यों का समाधान देखते हैं तब यह शंका निर्मूल हो जाती है । आचार्यों का कहना है कि भाई ! यदि स्व का अस्तित्व ही पर का नास्तित्व है तब तो जैसे स्वरूप आदि चतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु का अस्तित्व सिद्ध है वैसे ही स्वचतुष्टय से ही वस्तु में नास्तित्व धर्म रह जायेगा पुनः वस्तु शून्य रूप ही हो जावेगी अथवा जैसे पर चतुष्टय से वस्तु नास्ति रूप है वैसे ही स्व चतुष्टय से भी नास्तिरूप हो जायेगी, तो भी वस्तु का अभाव हो जायेगा अतः स्वचतुष्टय से अस्तिभंग एवं परचतुष्टय से नास्तिभंग ये दोनों अंग मानने ही पड़ेंगे ।।
यह अपेक्षावाद बहुत ही सुन्दर ढंग से वस्तु के धर्मों की विवेचना करता है। देखो ! सभी सिद्धान्त वाले लोग अपने सिद्धान्त को अपनी मान्यता से सिद्ध करते हैं और पर के सिद्धान्त को अपनी अमान्यता से बाधित करते हैं । यदि मान्यता और अमान्यता रूप परस्पर विरोधी दोनों धर्म उनके पास स्वपर की अपेक्षा से न होवें तो वे सिद्धान्तविद लोग अपने पक्ष की सिद्धि और पर के पक्ष का निराकरण भी नहीं कर सकेंगे, अत: स्व पर रूप से ही सत्व असत्व की सिद्धि होने से दोनों भंग निर्बाध सिद्ध हैं।
[ एक ही वस्तु में सत्त्व-असत्त्व दोनों धर्म परस्पर विरुद्ध हैं इस पर विचार ] प्रश्न—एक ही वस्तु में सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म युक्ति से विरुद्ध हैं। एवं परस्पर विरूद्ध दो धर्म एक आधार में नहीं रह सकते हैं। जैसे कि शीत और उष्ण दो विरोधी धर्मों का भिन्न ही आधार प्रतीति सिद्ध है।
उत्तर-ऐसा नहीं कह सकते हैं । कथंचित् अर्पित-अर्थात् स्वपर रूप से विक्षित इन दोनों धर्मों में विरोध असिद्ध है। उस प्रकार का ज्ञान भी पाया जाता है। अर्थात् वस्तु में ये दोनों धर्म किसी अपेक्षा से अर्पित किये गये हैं । ऐसा ज्ञान होता है “एक वस्तु को विषय करने वाले एवं एकात्म समवेत आगम एवं प्रत्यक्ष ज्ञान कारण विशेष के निमित्त से अर्थात् आगम ज्ञान का कारण शब्द है प्रत्यक्ष ज्ञान में कारण इंद्रियाँ हैं इस कारण भेद से जिस आत्मा में ये दोनों ज्ञान मौजूद हैं उस आत्मा में इन
1 स्वेष्टानिष्टवत् । (ब्या० प्र०) 2 सौगतः । (दि० प्र०) 3 जनः । सत्त्वासत्त्वयोः । (दि० प्र०) 4 जीवः । (ब्या० प्र०)
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