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अष्टसहस्री
__ [ कारिका १६ दुत्पन्नस्य तद्रूपस्य तदाकाराध्यवसायिनोपि ज्ञानस्य स्वसमनन्तरप्रत्यये प्रमाणत्वभावात् । तदनभ्युपगमे स्वाभ्युपगमासिद्धेः कि साधनः परमुपालभेत यतोवश्यं दर्शनं नियतस्व विषयानुपलम्भव्यावृत्तिलक्षणं परं विषयानुपलम्भात्मकं न प्रमाणयेत् । न हि स्वयं प्रमाणानभ्युपगमे स्वार्थप्रतिपत्तिः । न चाप्रतिपन्नमर्थं परस्मै प्रतिपादयितुमीशः परमुपालब्धं वा पराभ्युपगतस्यापि प्रमाणस्य प्रतिपत्तेरयोगात्, पराभ्युपगमान्तरात्तत्प्रतिपत्तावनवस्थाप्रसङ्गात् । तदेकोपलम्भनियमः स्वपरलक्षणाभ्यां भावाभावात्मानं प्रसाधयति । तदभावे न प्रवर्तेत नापि
भी विभ्रमहेतुक फलज्ञानों के साथ व्यभिचरित हो जाता है । जैसे कामला-पीलिया आदि रोग से युक्त चक्षु के द्वारा श्वेत शंख में पीताकार ज्ञान हो जाता है, एवं वह ज्ञान तद्रूप-तदाकार तथा तदाकाराध्यवसायी भी है, ऐसा वह ज्ञान स्वसमनंतरप्रत्यय में अर्थात् प्राक्तन पीताकारज्ञान में प्रमाणपने को प्राप्त हो जाता है।
यदि उस ज्ञान को आप प्रमाणभूत नहीं मानेंगे, तब तो स्वयं के द्वारा स्वीकृत (शून्यवाद) को भी सिद्धि नहीं हो सकेगी। पुनः आप किस हेतु के द्वारा पर प्रतिवादी (जैनादि) को उलाहना दे सकेंगे बतलाइये? जिससे कि अवश्य ही यह नियत स्वविषयानुपलम्भ व्यावृत्तिलक्षण दर्शन (ज्ञान) परनियत विषयानुपलम्भ को प्रमाणित न करे । क्योंकि स्वयं आप सौगत प्रमाण को स्वीकार न करने पर स्वार्थ अर्थात् अपने शून्यवाद को भी कैसे समझ सकेंगे? और स्वयं नहीं समझते हुये स्वमत को अथवा शून्यवाद को आप बौद्ध दूसरों को भी समझाने के लिये कैसे समर्थ होंगे? __अथवा हम जैन को उलाहना देने के लिये भी कैसे समर्थ हो सकेंगे? क्योंकि दूसरों के द्वारा स्वीकृत भी प्रमाण को आप समझ ही नहीं सकेंगे। अर्थात् जब आप सौगत स्वयं ही अपने शून्यवाद को नहीं समझते हैं न पर को प्रतिपादन कर सकते हैं और न परजनादि को उलाहना ही दे सकते हैं क्योंकि पर के द्वारा स्वीकृत प्रमाण को भी आप स्वयं तो जानते ही नहीं हैं, कारण आपके मत में तो सब कुछ शून्यरूप ही है।
यदि आप कहें कि पराभ्युपगमांतर से उस प्रमाण का ज्ञान कर लेंगे, तब तो अनवस्था का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा। अतएव हमारा सिद्धान्त यह है कि ज्ञान में जो एक वस्तु को विषय करने का नियम
1 ननु दर्शनं प्रामाण्यमेव नेष्यत इत्याह । (दि० प्र०) 2 तस्य स्वानुपलम्भव्यावृत्तिलक्षणस्य ज्ञानस्यानङ्गीकारे सौगतस्य स्वमतसिद्धिर्न स्यात् । (दि० प्र०) 3 स्याद्वादी वदति अयं सौगतः स्वार्थोपलम्भात्मकं परार्थानुलम्भात्मकमिति सदसदात्मलक्षणं ज्ञानं कुतो न प्रमाणयेत् अपितु प्रमाणं कुर्यात् । (दि० प्र०) 4 दूषयितुं वा । (दि० प्र०) 5 परवाद्यंगीकृतप्रमाणात् स्वप्रमाणपरिज्ञानेऽनवस्थादोषो घटते कथं स्वप्रमाणं परप्रमाणात्तत्परप्रमाणमन्यस्मात् परप्रमाणात्तदप्यन्यस्मादित्यादिप्रकारेण । (दि० प्र०) 6 स्वार्थव्यवसायात्मकमेव प्रमाणं स्वरूपपररूपाभ्यां स्वस्य सदसदात्मकत्वं निष्पादयति = तदभावे इति तस्य सदसदात्मकस्याभावे क्वचिदिष्टे वस्तुनि न वर्तेत अनिष्टेन निवर्तत प्रमाणान्तरवत् । यथा नानापुरुषसंवेदनं इष्टप्रवर्तकमनिष्टनिवर्तकं न भवतीति । (दि० प्र०)
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