Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

Previous | Next

Page 395
________________ २२६ ] अष्टसहस्री [ कारिका १६ [ प्रत्येकवस्तु स्वपराभ्यामेव सदसद्रूपौ नान्यप्रकारेण कथमेतत् ? ] ___ ननु च क्रमापितद्वयात्तावद्वतं' वस्तु । तत्तु स्वरूपादित एव सत् पररूपादित एवासत्, न पुनस्तद्विपर्ययादिति कुतोऽवसितमिति चेदुच्यते, स्वपररूपाद्यपेक्षं सदसदात्मकं वस्तु, न विपर्यासेन, तथादर्शनात् । सकलजनसाक्षिकं हि स्वरूपादिचतुष्टयापेक्षया सत्त्वस्य पररूपादिचतुष्टयापेक्षया चासत्त्वस्य दर्शनं, तद्विपरीतप्रकारेण चादर्शनं वस्तुनीति तत्प्रमाणयता तथैव वस्तु प्रतिपत्तव्यं, अन्यथा प्रमाणप्रमेयव्यवस्थानुपपत्तेः । कल्पयित्वापि तज्जन्मरूपा [ वस्तु स्वपर से ही सत्-असत् रूप है अन्य किसी प्रकार से नहीं ऐसा क्यों ? ] शंका-क्रम से अपित दो धर्मों की अपेक्षा से वस्तु द्वैतरूप है वह स्वरूपादि से ही सतरूप है एवं पररूपादि से ही असत्रूप है । पुनः इससे विपरीत अर्थात् पररूपादि से सत् और स्वरूपादि से असत्रूप नहीं है यह आप किस आधार से निश्चित करते हैं ? समाधान हम कहते हैं-स्वपररूपादि की अपेक्षा से ही वस्तु सदसदात्मक है, विपरीतपने से नहीं है, क्योंकि विपरीतरूप दिखती ही नहीं है। वस्तु में स्वरूपादिचतुष्टय की अपेक्षा से सत्त्व एवं पररूपादिचतुष्टय की अपेक्षा से असत्त्व है यह कथन तो सकलजनसाक्षिक है। अर्थात् सभी आबालगोपाल इसोरूप से ही वस्तु का अनुभव करते हैं और इससे विपरीतरूप वे दोनों धर्मवस्तु में दिखते ही नहीं हैं एवं दिखना ही प्रमाणरूप है, अतएव उस प्रकार से वस्तु को स्वीकार करना चाहिये। अन्यथा प्रमाण और प्रमेय की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। "तज्जन्यरूप अध्यवसाय की कल्पना करके भी आप बौद्धों को स्वविषय का अनुपलम्भ व्यावृत्तिलक्षण दर्शन अर्थात् अपने विषय की उपलब्धिलक्षण दर्शन को (स्वलक्षण को ग्रहण करना है विषय जिसका ऐसा दर्शन) प्रमाणीक मानना ही चाहिये ।" तथाहि—यह निर्विकल्प ज्ञान जिस योग्यतारूप प्रत्यासत्ति के द्वारा किसी एक के ही आकार का अनुकरण करता है, उस योग्यता के द्वारा उसी अर्थ को नियम से विषय करता है, अन्यथा नहीं करता है इस परंपरागतपरिश्रम का परिहार कर देना चाहिये। ___ भावार्थ - ज्ञान जिस पदार्थ से उत्पन्न होता है, उसके आकार को धारण करता है और पुनः उसी को विषय करता है इस परंपरा से होने वाले परिश्रम का परिश्रम वह बौद्ध कैसे कर सकेगा? शंका-निर्विकल्पदर्शन नीलादि अर्थ में तज्जन्य, तद्रूप और तदध्यवसाय के होने पर ही प्रमाण 1 सौगतः । (ब्या० प्र०) 2 परः । सदसदुभयधर्मात् । (दि० प्र०) 3 भवतु तच्च इति पा० । (दि० प्र०) 4 प्रतीतिः। (दि० प्र०) 5 स्वरूपादिनाऽसत् पररूपादिनासत् इति प्रकारेण वस्तुनि दर्शनेन घटते । (दि० प्र०) 6 स्वपररूपचतुष्टयेन सदसदात्मकं वस्त्वंगीकर्तव्यम् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494