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अष्टसहस्री
कारिका १६ चेतनवस्तुनो विविक्तस्वरूपम् । तमेव वा बिभर्ति तादृशं, न पुनश्चैतन्यं, तत्त्वतः इत्यभ्युपगमयोरेकतरानवस्थानेऽन्यतरस्याप्यनवस्थानादुभयानवस्थितिप्रसङ्गात् क्वचिदभ्युपगते रूपे कथंचित्प्रत्यक्षादिप्रकारेण स्वाभ्युपगमादिप्रकारेण च नियमासंभवात् । सूक्तमीदृशं न चेन्न व्यवतिष्ठते इति । तदेवं प्रथमद्वितीयभङ्गौ निर्दिश्य तृतीयादिभङ्गान्निर्दिशन्ति भगवन्तः' ।
क्रमार्पितद्वयाद् द्वैतं, सहावाच्यमशक्तितः । अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ॥१६॥
उत्तर-इस प्रकार से दोनों को स्वीकार करने पर पुनः एकाकार और अनेकाकार में से द्रव्यरूप अथवा पर्यायरूप किसी एक का अवस्थान न होने पर, दूसरे का भी अवस्थान बन नहीं सकता है, अतएव उभय की भी अवस्थिति के विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि भेदरूप अथवा अभेदरूप में से किसी एक के ही स्वीकार कर लेने पर कथञ्चित् प्रत्यक्षादि प्रकार से और अपने द्वारा स्वीकृत आदि के प्रकार से सुखादि में भेद ही है, या अभेद ही है, इत्यादि नियम ही असम्भव हो जावेगा, अतएव यह बिल्कुल ठीक ही कथन है, कि वस्तु यदि उपर्युक्त प्रकार से सत्-असत्रूप न होवे, तब तो किसी के यहाँ कुछ भी तत्त्व व्यवस्था बन नहीं सकती है।
इस प्रकार से प्रथम एवं द्वितीय भंग का निर्देश करके भगवान् श्री समंतभद्राचार्यवर्य तृतीय आदि भंगों का निर्देश करते हैं।
कारिकार्थ-क्रम से दोनों धर्मों की विवक्षा करने से "स्यादस्तिनास्ति' द्वैतरूप तीसरा भंग बन जाता है एवं एक साथ दोनों ही धर्मों को कहने की शक्ति किसी भी शब्द में नहीं है. अतएव सहावाच्य होने से चौथा "अवक्तव्य रूप" भंग हो जाता है, इसी प्रकार से प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भंग के उत्तर में 'अवक्तव्य' पद के जोड़ देने से शेष तीन भंग भी अपने-अपने हेतु से सिद्ध हो जाते हैं ॥१६॥
क्रम से अर्पित स्वपररूपादि चतुष्टयद्वय की अपेक्षा से कथंचित् उभयरूप वस्तु द्वैत कहलाती है। "द्वाभ्यां सदसत्त्वाभ्यामितस्य एव द्वीतत्त्वात्" अर्थात् सत असत्रूप दो धर्मों के द्वारा प्राप्त ही "द्वोत" कहलाता है । स्वार्थ में ही 'अण्' प्रत्यय होकर "द्वैत' शब्द सिद्ध हो जाता है। स्वपररूपादि
1 अघटनात् । (ब्या० प्र०) 2 अत्राह स्याद्वादी संवेदनाद्वैतसुखादिभेदवादिसौगतयोर्मध्ये एकस्य निराकरणेऽन्यस्यापि निराकरणं घटते । एवमुभयस्याप्यस्थितिः प्रसजति । (दि० प्र०) 3 वस्तुनः । ततः। (ब्या० प्र०) 4 इदम् इति पा० । (ब्या० प्र०) 5 उक्तप्रकारेण । (दि० प्र०) 6 प्रतिपाद्य । (दि० प्र०) 7 समन्तभद्राः । (दि० प्र०) 8 स्वपररूपादिचतुष्टयद्वयात् । (दि० प्र०) 9 सहार्पितद्वयात् । (दि० प्र०) 10 सदसदुभयरूपाः पञ्चमषष्टसप्तमाश्चतुर्थ्यः पूर्वोक्तेभ्यो भिन्नत्वात् । (दि० प्र०)
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