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प्रथम परिच्छेद
अस्तिनास्ति भंग ]
[ ३२३ 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः । परोक्षं शेषविज्ञानं प्रमाणे इति संग्रहः।' इति संक्षेपतः प्रत्यक्षपरोक्षयोरेव वस्तुपरिच्छित्तौ व्यापारवचनात् । कथं तर्हि केशादिविवेकव्यामुग्धबुद्धिः पुरुषो दृष्टान्तः समः' स्यादिति चेत् केशमशकमक्षिकादिप्रतिभासात्मना सत्त्वपरिणाम साक्षात्कुर्वन् विवेकाद्यात्मना' च कुतश्चिदनुमिन्वन्नुपश्रृण्वन्वा परोक्षयन्, अविवेकादिव्यामोहप्रतिभासात्मना' चासत्त्वपरिणामं कथञ्चित्तु साक्षात्कुर्वन् परोक्षयंश्च सम एव' स दृष्टान्तः तथा वैषम्याभावात् । ननु च तद्वस्तु चैतन्यमेवैकमक्रमादिरूपं बिति, न पुनः सुखादिभेदमनेकाकारं क्रमाद्यात्मकं, सजातीयाच्चेतनवस्तुनो' विजातीयाच्चा
श्लोकार्थ-विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं, उसके मुख्य और सांव्यवहारिक ये दो भेद हैं तथा इनसे बचे शेष ज्ञान-अनुमान, स्मृति आदि परोक्ष प्रमाण कहलाते हैं, इस प्रकार से प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों में ही सम्पूर्ण प्रमाणों का संग्रह हो जाता है।
__ इस प्रकार से प्रत्यक्ष और परोक्षप्रमाण ही वस्तु की परिच्छित्ति में व्यापार करते हैं, यह संक्षेप से कथन किया गया है, ऐसा समझना चाहिये।
प्रश्न-यदि एक ही पुरुष प्रत्यक्ष एवं परोक्षज्ञान से जानता है तब तो केशादि के विवेक में मूढ़बुद्धिवाले पुरुष का दृष्टान्त सम कैसे होगा ?
उत्तर-केश, मच्छर एवं मक्षिकादिरूप प्रतिभास से अस्तित्वभाव को प्रत्यक्ष करते हये और विवेक आदिरूप से किसी अनुमानज्ञान से अनुमित करते हुए अथवा आगमज्ञान से सुनते हुए परोक्षरूप से जानता है एवं अभेदादिरूप या विपरीत बुद्धि से नास्तित्वपरिणाम को कथञ्चित् योग्यदेशादि प्रकार से साक्षात् करता है । अथवा परोक्षरूप से जानता है, अत: यह उपर्युक्त दृष्टान्त सम ही है, क्योंकि वैसी विषमता यहाँ सम्भव नहीं है।
प्रश्न-तद्वान् वस्तु - आत्मा एक ही अक्रमादिरूप चैतन्य को धारण करता है किन्तु सुखादि भेदरूप, अनेकाकार और क्रमाद्यात्मक को धारण नहीं करता है, क्योंकि सजातीय चेतनवस्तु का विजातीय अचेतनवस्तु से भिन्न स्वरूप है। अथवा उस प्रकार के अनेकाकाररूप एवं सुखादि भेदरूप को ही धारण करता है किन्तु अक्रमादिरूप चैतन्य को ही धारण नहीं करता है अर्थात् जब द्रव्य को अभेदरूप ग्रहण करता है, तब भिन्न-भिन्न सुखादि पर्यायरूप को नहीं ग्रहण करता है एवं पर्यायरूप ग्रहण करने पर मात्र द्रव्यरूप को नहीं ग्रहण करता है।
1 एकेन व पुरुषेण जीवादेः साक्षात्करणे परोक्षेण च दृष्टान्तस्समः स्यादिति भावः । (दि० प्र०) 2 अस्तित्वं दूरतः साक्षात् कुर्वन् । विषयस्य । (ब्या० प्र०) 3 अनेकाकारः । (ब्या० प्र०) 4 स्थूलरूपत्वम् । (दि० प्र०) 5 अर्थरूपम् । (दि० प्र०) 6 परोक्षज्ञानयोग्य इत्याद्यात्मना । (दि० प्र०) 7 समयव दृष्टान्तरिति पा० । (ब्या० प्र०) 8 पुरुषाद्वैताह । (ब्या० प्र०) 9 अन्य सौगतः । (दि० प्र०)
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