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अस्तिनास्ति भंग ] प्रथम परिच्छेद
[ ३१५ यादिति प्यखे कर्मण्युपसंख्यानात् का। स्वरूपादिचतुष्टयमपेक्ष्य को नेच्छेत्सदेव सर्वमित्यर्थः । एतेन विपर्यासादिति व्याख्यातम् ।
[ वस्तुनः स्वसत्वमेव परासत्त्वमतः स्वपररूपापेक्षया सत्त्वासत्त्वे कथं स्यातामित्याशंकायाः समाधानं ]
ननु स्वसत्त्वस्यैव परासत्त्वस्य प्रतीतेन वस्तुनि स्वपररूपादिसत्त्वासत्त्वयोर्भेदो, यतः प्रथमद्वितीयभनौ घटेते, तदन्यतरेण गतार्थत्वात् । तदघटने च तृतीयादिभङ्गाभावात्कुतः सप्तभङ्गीति चेन्न, स्वपररूपादिचतुष्ट यापेक्षाया स्वरूपभेदात्सत्त्वासत्त्वयोरेकवस्तुनि भेदोपपत्तेः, त्योरभेदे स्वरूपादिचतुष्टयापेक्षयेव पररूपादिचतुष्टयापेक्षयापि सत्त्वप्रसङ्गात्, तदपेक्ष
अतएव स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा सभी वस्तु सत्रूप एवं पररूपादि की अपेक्षा सभी वस्तु असत् रूप हैं ऐसी व्यवस्था सुघटित है।
कारिका में जो ‘स्वरूपादि चतुष्टयात्'' यह पद आया है, इसमें "टय' का लोप होने पर कर्म अर्थ में पंचमी विभवित हुई है। इसका अर्थ "स्वरूप आदि चतुष्टय को आश्रय करके" ऐसा होता है । अर्थात् स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा करके सभी जीवादि वस्तुएँ सत्रूप ही हैं ऐसा कौन नहीं मानेगा-अपितु सब हो मानेंगे। इसी कथन से "विपर्यासात्" अर्थात् पररूपादि की अपेक्षा से सभी वस्तु "असत् रूप' ही है ऐसा भी कौन नहीं स्वीकार करेगा अर्थात् सभी स्वीकार करेंगे। [ वस्तु का अपना सत्व ही पर का असत्व है अतः स्व पर चतुष्टय की अपेक्षा से सत्वासत्व
व्यवस्था कैसे होगी? इस शंका का समाधान ] प्रश्न-वस्तु का सत्व ही तो पर के असत्व रूप है अर्थात वस्तु का अपना अस्तित्व ही तो . अपने में पर का नास्तित्व है। अतएव स्वपर रूपादि की अपेक्षा से आप उसमें अस्तित्व और नास्तित्व का भेद सिद्ध नहीं कर सकते हैं। जिससे कि पहले और दूसरे भंग घटित हो सकें। क्योंकि इन दोनों में से किसी एक के द्वारा ही अर्थ का बोध हो जाता है। और इन दोनों भंगों के घटित न होने से तृतीय आदि भंगों का भी अभाव हो जाता है तब सप्त भंगी की सिद्धि कैसे हो सकेगी?
उत्तर ऐसा नहीं कह सकते हैं। क्योंकि स्वपर रूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्व एवं नास्तित्व में स्वरूप भेद पाया जाता है। अतएव एक ही वस्तु में सत्व और असत्व का स्वरूप से भेद है । जो अपना सत्व है वही पर का असत्व है ऐसा कहकर उन दोनों में अभेद मान लेने पर स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा के समान ही पररूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से भी अस्तित्व का प्रसंग आ जायेगा । अथवा पर रूपादि चतुष्टय की अपेक्षा के समान ही स्वरूपादि की अपेक्षा से भी असत्व का प्रसंग आ जायेगा । क्योंकि अपेक्षा के भेद से कहीं पर भी धर्मों में भेद की प्रतीति बाधित नहीं होती है । बदरी पल-बेर की अपेक्षा से बिल्वफल-बेल में स्थूलपना एवं बिजौरे की अपेक्षा से बेलफल में छोटापना प्रतीति सिद्ध ही है इसमें किसी भी प्रकार से बाधा संभव नहीं है।
1 आह कश्चित्परः हे स्याद्वादिन् ! स्वसत्त्वेनैव परासत्त्वस्य प्रतीतिरस्तिपदार्थ स्वरूपेण सत्त्वं पररूपेणासत्त्वमिति भेदो नास्ति । (दि० प्र०) 2 तयोसत्त्वासत्त्वयोर्मध्य एकतरस्याघटने । (दि० प्र०) 3 अन्यथा शब्दार्थः । (दि० प्र०)
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