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अस्तिनास्ति भंग ] प्रथम परिच्छेद
[ ३१३ स्वरूपम् । प्रत्यक्षस्यापि विकलस्यावधिमनःपर्ययलक्षणस्य मनोक्षानपेक्षं स्पष्टात्मार्थग्रहणं स्वरूपम् । सकलप्रत्यक्षस्य सर्वद्रव्यपर्यायसाक्षात्करणं स्वरूपम् । ततोन्यत् सर्वं तु पररूपम् । ताभ्यां सदसत्त्वे प्रतिपत्तव्ये । एवमुत्तरोत्तरविशेषाणामपि' स्वपररूपे तद्विद्भिरभ्यूह्य तद्विशेषप्रतिविशेषाणामनन्तत्वात्। द्रव्यक्षेत्रकालभावविशेषाणामनेनैव प्रतिद्रव्यपर्यायं स्वपररूपे प्रतिपादिते।
[ जीवादिद्रव्याणां कि स्वद्रव्यं किञ्च परद्रव्यं ? ] ननु च जीवादिद्रव्याणां षण्णामपि किं स्वद्रव्यं किं वा परद्रव्यम् ? यतः' सदसत्त्वे
इसी स्वपर की अपेक्षा से वस्तु के अस्तित्व, नास्तित्व के प्रतिपादनप्रकार से प्रत्येक द्रव्य एवं उनकी प्रत्येक पर्यायों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप चतुष्टय का स्वपररूप प्रतिपादन कर दिया गया है, ऐसा समझ लेना चाहिये।
__ भावार्थ-नैयायिक प्रत्येक वस्तु के गुण को उससे पृथक् मानकर समवाय सम्बन्ध में उसको द्रव्य में जोड़ता है तथा द्रव्य में द्रव्यत्व, जीव में जीवत्व, अग्नि में उष्णगुण पुनः उष्ण में उष्णत्व आदि को मानता है । अतः उसका प्रश्न है कि जैसे आप वस्तु का स्वरूप मानते हैं, वैसे ही आप स्वरूप का भी स्वरूप मानिये । एवं पुनः पुनः स्वरूप में स्वरूप की कल्पना करते रहने से अनवस्था आ जावेगी और यदि स्वरूप में भिन्न स्वरूप नहीं मानोगे, तो स्वरूप की व्यवस्था नहीं बनेगी, किन्तु जैनाचार्य इस नैयायिक को अच्छा समाधान देते हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक द्रव्य आदि का स्वरूप स्वयं अनुभव में आ रहा है, अतः वह भिन्नस्वरूप की अपेक्षा नहीं रखता है । जैसे जीव का स्वरूप उपयोग है, उपयोग के भी ज्ञान, दर्शन दो भेद हैं ज्ञान का स्वरूप स्वपर को जानना है इत्यादि।
इससे विपरीत जानने-देखनेरूप उपयोग से रहित अनुपयोगस्वरूप जीव का पररूप है । अग्नि का स्वरूप उष्णता है, इससे विपरीत शीतता उस अग्नि का पररूप है। अब उस उष्णता में कोई भिन्नस्वरूप नहीं है अतः प्रत्येक वस्तु के स्वभाव को ही स्वरूप या स्वलक्षण कहते हैं पुनः उस स्वरूप में स्वरूपान्तर को माने बिना भी कोई बाधा नहीं आती है।
[ जीवादि द्रव्यों का स्वद्रव्य क्या है एवं परद्रव्य क्या है ? ] प्रश्न-- जीवादि छह द्रव्यों का भी स्वद्रव्य क्या है एवं परद्रव्य क्या है जिससे कि उनके 1 द्रव्यरूप । (व्या. प्र.) 2 स्वार्थ ग्रहणं किमवधेः इत्युक्ते । आह । रूपष्ववधेविषयः । तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य । (दि० प्र०) 3 ज्ञानादेः । ज्ञानस्य भेदप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 4 एवं ज्ञानदर्शनोपयोगस्योत्तरोत्तरभेदानामपि स्वरूपपररूपे भेदज्ञातृभिः ग्राह्ये । (दि० प्र०) 5 स्वपररूपे ग्राह्ये । मतिज्ञानादि । (दि० प्र०) 6 भेदः । (ब्या० प्र०) 7 द्रव्यस्य ये पर्यायास्तान् महाद्रव्यादिव्यतिरिक्तावान्तरद्रव्यादी नित्यर्थः । जीवद्रव्यस्य नरनारकत्वादयः पर्यायास्तत्र नरनारकत्वादिकं द्रव्यं सुखदुःखादिकं पर्यायः एवं प्रति द्रव्यपर्यायमभ्यूह्य तथाहि द्रव्यस्य पर्यानुगतत्वमेव स्वरूपं क्षेत्रस्यावगाहकत्वमेव । कालस्य पर्यायव्यापित्वम् । (दि० प्र०) 8 कश्चित्स्वमतवर्ती पृच्छति । (दि० प्र०) 9 नैव । (दि० प्र०)
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