Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 383
________________ ३१४ ] अष्टसहस्री [ कारिका १५ व्यवतिष्ठते, द्रव्यान्तरस्यासंभवादिति चेन्न, तेषामपि शुद्धं सद्रव्यमपेक्ष्य सत्त्वस्य' तत्प्रतिपक्षमसद्भावमपेक्ष्यासत्त्वस्य च प्रतिष्ठोपपत्तेः । शुद्धद्रव्यस्य स्वपरद्रव्यव्यवस्था कथम् ? तस्य सकलद्रव्यक्षेत्रकालभावात्मकत्वात्, तद्व्यतिरेकेणान्यद्रव्याद्यभावादिति चेन्न, सकलद्रव्यक्षेत्रकालभावानपेक्ष्य सत्त्वस्य, तदभावमपेक्ष्यासत्त्वस्य च व्यवस्थितेः 'सत्ता सप्रतिपक्षा'' इति वचनात् । एतेन सकलक्षेत्रस्य नभसोनाद्यनन्ताखिलकालस्य च सकलक्षेत्रकालात्मनः प्रतिनियतक्षेत्रकालात्मनश्च' स्वपररूपत्वं निश्चितम् । अतः सदसत्व व्यवस्था । स्वरूपादिचतुष्ट अस्तित्व और नास्तित्व की व्यवस्था बन सके। क्योंकि छह द्रव्यों को छोड़कर भिन्न द्रव्य असंभव ही है। उत्तर-नहीं। उन छहों द्रव्यों में भी शुद्ध सद्रव्य की अपेक्षा से अस्तित्व एवं उसके प्रतिपक्षी असद्भाव की अपेक्षा से नास्तित्व की व्यवस्था बन जाती है। अर्थात् शुद्ध एवं व्यवहार के भेद से द्रव्य के २ भेद कीजिये, उसमें "सत् सत्" यह शुद्ध द्रव्य है एवं भेदपूर्वक अभिमत व्यवहार द्रव्य है। प्रश्न-शुद्ध द्रव्य में स्वपर द्रव्य व्यवस्था कैसे सम्भव है ? क्योंकि वह शुद्ध द्रव्य सकल द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावात्मक है। उन द्रव्य क्षेत्र आदि को छोड़कर अन्य रूप से द्रव्यादि का अभाव है। उत्तर-ऐसा नहीं कहना क्योंकि सकल द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा करके अस्तित्व की एवं सकल द्रव्यादि के अभाव अर्थात् कतिचित् भावों की अपेक्षा करके नास्तित्व की व्यवस्था बन जाती है । क्योंकि श्री कुन्द कुन्द देव कृत पंचास्तिकाय में ऐसा कहा है कि "सत्ता सप्रतिपक्षा" अर्थात् सत्ता भी अपने प्रतिपक्ष असत्ता कर सहित है। भावार्थ-सत्ता के दो भेद हैं एक महासत्ता, दूसरी अवांतर सत्ता। समस्त पदार्थों में जो एकत्व का बोध कराने वाली है वह महासत्ता है । इसी को समस्त पदार्थ सार्थव्यापिनी कहा है। इससे भिन्न प्रत्येक पदार्थ को जो अपनी-अपनी सत्ता है वह अवांतर सत्ता है इसे प्रत्येक पदार्थ सार्थव्यापिनी कहा है। और महासत्ता की प्रतिपक्षभूत अवांतर सत्ता है। इसकी अपेक्षा से ही महासत्ता में पररूपता घटित होती है इस प्रकार स्वरूप और पररूप का सद्भाव होने से इनकी अपेक्षा लेकर महासत्ता में अस्तित्व नास्तित्व धर्मों की सिद्धि हो जातो है। इसी कथन से सकल क्षेत्र आकाश, एवं अनादि अनन्त स्वरूप काल में भी सकल क्षेत्र एवं सकल कालादि रूप से तथैव प्रतिनियत क्षेत्र कालादि रूप से स्व, पर, स्वरूप निश्चित हो जाता है ऐसा समझ लेना चाहिये । 1 ज्ञानादे. सदसत्त्वप्रतिपादनेनैव । तेषां षण्णां द्रव्याणां सत्तामात्रं शुद्धं द्रव्यं यत्तत्सत्त्वं सामान्यम् । जीवाजीवधर्माधर्मकालाकाशइत्यादिविशेषमपेक्ष्यासत्त्वं तिष्ठति । (दि० प्र०) 2 ननु कतिचिन्द्रव्यादीन् । (ब्या० प्र०) 3 सप्रतिपक्षकेति । पा० । (ब्या० प्र०, दि० प्र०) भेदरहिता । (व्या० प्र०) 4 नभः । (व्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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