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अस्तिनास्ति भंग ]
प्रथम परिच्छेद
[ ३११
[ स्वरूपे स्वरूपान्तराभावाद् वस्तुव्यवस्था कथं भवेदिति न्यायिकस्यारेकायां विचारः ] नन्वेवं स्वरूपादीनां स्वरूपाद्यन्तरस्याभावात्कथं व्यवस्था स्यात्, भावे' वानवस्थाप्रसङ्गात् । सुदूरमपि गत्त्वा स्वरूपाद्यन्तराभावेपि कस्यचिद्वयवस्थायां किमनया प्रक्रियया स्वगृहमान्यया यथाप्रतीति वस्तुव्यवस्थोपपत्तेरिति ' कश्चित्सोपि वस्तुस्वरूप परीक्षानभिमुखो, वस्तुप्रतीतेरेव' तथा 'प्ररूपयितुमुपक्रान्तत्वात् । अन्यथा नानानिरंकुशविप्रतिपत्तीनां निवारयितुमशक्यत्वात्' । वस्तुनो हि यथैवाबाधिता' प्रतीतिस्तथैव स्वरूपं न च तत्ततोन्यदेव प्रतीयते येन स्वरूपान्तरमपेक्षेत । तथा प्रतीतौ वा तदुपगमेपि नानवस्था, यत्राप्रतिपत्तिस्तत्र * व्यवस्थोपपत्तेः ।
[ स्वरूप में भिन्नस्वरूप का अभाव होने से वस्तुव्यवस्था कैसे बन सकेगी ? नैयायिक की इस शंका पर विचार ]
नैयायिक- - इस प्रकार से स्वरूप दि में तो भिन्नस्वरूप आदि का अभाव सिद्ध हो गया पुनः व्यवस्था कैसे बनेगी ? यदि आप कहें कि स्वरूपादि में भी भिन्न स्वरूपादि पाये जाते हैं, तब तो अनवस्था का प्रसंग आ जावेगा एवं बहुत दूर जाकर भी स्वरूपाद्यंतर का अभाव स्वीकार करने पर पुनः स्वगृह मान्य इस उपर्युक्त प्रक्रिया से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि प्रतीति का अतिक्रमण न करके ही वस्तुतत्त्व की व्यवस्था होती है ।
जैन - ऐसा कहने वाले आप नैयायिक भी वस्तुस्वरूप की परीक्षा से अनभिमुख ही हैं क्योंकि उसी प्रकार से वस्तु की प्रतीति का ही हम प्ररूपण करने के लिये सन्नद्ध हुये हैं, अन्यथा यदि प्रतीति का अनुसरण हम नहीं करें, तब तो अनेक प्रकार के निरंकुश - निरर्गल विसंवादों का निवारण करना ही अशक्य हो जावेगा, क्योंकि वस्तु की जिस प्रकार से अबाधित प्रतीति हो रही है, उसी प्रकार से ही उसका स्वरूप है और वह स्वरूप उस प्रतीति से भिन्नरूप में अनुभव में नहीं आता है कि जिससे वह स्वरूप स्वरूपांतर की अपेक्षा रखे ।
अथवा स्वरूपादि में स्वरूपांतर आदि की प्रतीति के स्वीकार कर लेने पर भी अनवस्था दोष नहीं आता है, क्योंकि जहाँ पर अप्रतिपत्ति हो जाती है वहीं पर व्यवस्था बन जाती है अर्थात् जब स्वरूपांतर (अपरस्वरूप ) में अप्रतिपत्ति हो जाती है तभी स्वरूप ( उस प्रथम स्वरूप ) में व्यवस्था बन जाती है, अतएव जहाँ पर जिसकी अप्रतिपत्ति है, वहीं पर उसकी अनवस्था है । उसी का स्पष्टोकरण
1 स्वरूपाद्यन्तरस्य भावे । ( दि० प्र०) 2 सौगताह हे स्याद्वादिन् यथा प्रतीयते वस्तु तथास्थितिरुत्पद्यते इति प्रश्नः । सोपि सौगतोऽपरीक्ष इति चेत्तत्र त्वयांगीकृतं तदा श्रृणु ब्रुवे । (दि० प्र० ) 3 नैयायिको वैभाषिको वा । ( दि० प्र०) 4 अकार्षीत् । ( दि० प्र० ) 5 वस्तुप्रतीतेः सकाशात्केवलं वस्तुप्ररूपयितुं प्रारब्धत्वाभावेऽनेकनिरर्गल विवादाननिषेधुं शक्यते यतः । ( दि० प्र० ) 6 प्रतीतिबलाभावात् । ( दि० प्र० ) 7 नियतरूपेण । ( दि० प्र० ) 8 द्वितीयस्वरूपे । (ब्या० प्र०) 9 स्वरूपान्तरस्य रहितत्वेन । ( ब्या० प्र० )
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