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अस्तिनास्ति भंग ]
प्रथम परिच्छेद
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पह्नोतुमशक्तेः । अथ स्वयमेवं प्रतीयन्नपि कश्चित्कुनयविपर्यासितमतिर्नेच्छेत् स न क्वचिदिष्टे तत्त्वे व्यवतिष्ठेत',
[ वस्तुनो वस्तुत्वं किं ? ] स्वपररूपोपादाना'पोहन व्यवस्था पाद्यत्वाद्वस्तुनि वस्तुत्वस्य, स्वरूपादिव पररूपादपि सत्त्वे चेतनादेरचेतनादित्व प्रसङ्गात् तत्स्वात्मवत्, पररूपादिव स्वरूपादप्यसत्त्वे सर्वथा शून्यतापत्तेः, स्वद्रव्यादिव परद्रव्यादपि सत्त्वे "द्रव्यप्रतिनियमविरोधात् । संयोगविभागादेर नेकद्रव्याश्रयत्वेपि तद्रव्यप्रतिनियमो न विरुध्यते एवेति चेन्न, तस्यानेकद्रव्यगुणत्वेनानेक
स्वयं इस प्रकार प्रतीति में अनुभव करते हुए भी कोई सांख्यादि जिनकी कुनय से बुद्धि विपरीत हो रही है, यदि ये लोग स्वीकार न करें, तो वे अपने इष्टतत्त्व को भी व्यवस्थापित नहीं कर सकेंगे।
[ वस्तु का वस्तुत्व क्या है ? ] स्वरूप का उपादान और पररूप का त्याग करके ही वस्तु में वस्तुत्व का आपादन किया जाता
क वस्तु
वस्त की व्यवस्था स्वस्वरूप का उपादान एवं पररूप का त्याग करके ही बन सकती है।
यदि स्वरूप के समान ही पररूप से भी सत्त्व स्वीकार कर लेवें तब तो चेतन आदि वस्तु अचेतनरूप हो जावेंगी। तत्स्वात्म के समान अर्थात् जैसे जीव को चैतन्यपना स्वरूप है, वैसे ही चेतन भी स्वरूप हो जावेगा । अथवा पररूप के समान ही स्वरूप से भी असत्त्व मानोगे, तब तो 'सर्वथा' सभी वस्तु शून्यरूप हो जावेंगी। उसी प्रकार से स्व द्रव्य के समान ही परद्रव्य से भी सत्त्व मानने पर, द्रव्य के प्रतिनियम का विरोध हो जावेगा।
नैयायिक-संयोग, विभाग आदि अनेक द्रव्य के आश्रय रहते हैं फिर भी उन संयोग विभाग आदि से द्रव्य का प्रतिनियम विरुद्ध नहीं होता है । अर्थात् ये संयोग विभाग आदि एक दूसरे की अपेक्षा लेकर ही होते हैं क्योंकि एकद्रव्य में न संयोग हो सकता है, न विभाग हो सकता है।
जैन-नहीं, वे संयोग विभाग आदिक अनेक द्रव्य में गुणरूप से रहते हैं अतएव उन अनेक द्रव्यो में स्वद्रव्यत्व ही रहता है । अर्थात् संयोग, विभाग तो अनेक द्रव्य के गुण हैं न कि द्रव्य हैं अतएव अनेक द्रव्यों में अपने-अपने स्वद्रव्यत्त्व की अपेक्षा द्रव्यत्व ही रहता है।
1 निराकर्तम् । (दि० प्र०) 2 यदि । (ब्या० प्र०) 3 स्वपररूपादिचतुष्टयमाश्रित्य सत्त्वासत्त्वप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 4 कुयुक्तिः कुमतिः । (ब्या० प्र०) 5 प्रवर्तेत । (दि० प्र०) 6 भाद्धिः । (ब्या० प्र०) 7 अनुवृत्तिः । (ब्या० प्र०) 8 व्यावृत्तिः । (ब्या० प्र०) 9 ता । (ब्या० प्र०) 10 युक्त्याबलात्कारेण ग्राहित्वात् । (ब्या० प्र०) 11 परमार्थसत्त्वस्य । (ब्या० प्र०) अतः स्वरूपादिलक्षणचतुष्टयमाह । (दि० प्र०) 12 स्वरूपमाश्रित्य । (ब्या० प्र०) 13 अचेतनस्वात्मवत् । (दि० प्र०) 14 ईप् । (ब्या० प्र०) 15 सत्त्वस्य । (ब्या० प्र०) 16 यथाद्रव्यम् । (ब्या० प्र०)
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