Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 379
________________ ३१० ] अष्टसहस्री [ कारिका १५ द्रव्यस्यैव स्वद्रव्यत्वात्, स्वानाश्रयद्रव्यान्तरस्य परद्रव्यत्वात्ततोपि सत्त्वे स्वाश्रयद्रव्यप्रतिनियमव्याघातस्य तदवस्थत्वात्। तथा परद्रव्यादिव स्वद्रव्यादपि कस्यचिदसत्त्वे सकल द्रव्यानाश्रयत्वप्रसङ्गादिष्ट द्रव्याश्रयत्वविरोधात् । तथा स्वक्षेत्रादिव परक्षेत्रादपि सत्त्वे कस्यचित्प्रतिनियतक्षेत्रत्वाव्यवस्थितेः । परक्षेत्रादिव स्वक्षेत्रादपि चासत्त्वे निःक्षेत्रतापत्तेः । तथा स्वकालादिव परकालादपि सत्त्वे प्रतिनियतकालत्वाव्यवस्थानात् । परकालादिव स्वकालादप्यसत्वे सकलकालासंभक्त्विप्रसङ्गात् क्व किं व्यवतिष्ठेत' ? यतः स्वेष्टानिष्टतत्त्वव्यवस्था । इस द्रव्य के अतिरिक्त जो इनका अनाश्रयभूत द्रव्यांतर है वह परद्रव्य है। अतः संयोग एवं विभाग ये दोनों स्वद्रव्य की अपेक्षा से ही सत्त्व विशिष्ट हैं परद्रव्य की अपेक्षा से नहीं । यदि परद्रव्य से भी इनका सत्त्व स्वीकार करेंगे तब तो अपने आश्रयभूत द्रव्य का भी प्रतिनियम नहीं बन सकेगा अर्थात् यह संयोग इन दो ही द्रव्यों का है अन्य द्रव्यों का नहीं है यह प्रतिनियम नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार परद्रव्य की अपेक्षा से असत्त्व की तरह स्वद्रव्य की अपेक्षा से भी किसी का असत्त्व माना जावेगा तब तो सभी द्रव्य अनाश्रयभूत हो जावेंगे और उसमें इष्टद्रव्य के आश्रयत्व का विरोध हो जावेगा। भावार्थ-जैसे घट में जो अस्तित्व है, वह अपने रूप घटपने की अपेक्षा से भी मान लेवें, तब तो घट में पटरूपता की प्रसक्ति होने से जलार्थी पुरुष की जो घट में प्रवृत्ति है एवं शरीर को ढाकने वाले की जो पट में प्रवृत्ति है उसका समूलत: विनाश ही विनाश होने का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा तथा जगत् या तो घटरूप ही हो जावेगा या पटरूप ही। उसी प्रकार घट में स्वरूप की अपेक्षा से भी यदि असत्त्व होवे, तब तो वह घट स्वरूप से भी नहीं होगा अतः वह किसी रूप से भी नहीं होने से शशविषाण के समान उसका अभाव होकर सर्वथा ही वह घट शून्यरूप ही हो जावेगा। उसी प्रकार से यदि स्वक्षेत्र के समान ही परक्षेत्र की अपेक्षा से भी सत्त्व स्वीकार करेंगे तब तो किसी वस्तु के प्रतिनियत क्षेत्रत्व की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। तथैव परक्षेत्र की अपेक्षा से असत्त्व के समान ही यदि स्वक्षेत्र से भी अस त्त्व कहेंगे, तब तो किसी भी वस्तु का कोई क्षेत्र ही सिद्ध न होने से सभी वस्तु को निःक्षेत्रत्व का प्रसंग आ जावेगा। उसी प्रकार स्वकाल की अपेक्षा सत्त्व के समान परकाल से भी सत्त्व स्वीकार करने पर वस्तु का प्रतिनियत काल व्यस्थित नहीं हो सकेगा। तथैव परकाल से नास्तित्व के समान ही स्वकाल की अपेक्षा से भी यदि असत्त्व मान लेंगे, तब तो सभी काल में ही वस्तु का रहना असम्भव हो जावेगा। पुनः स्वरूप आदि-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव में वस्तु की व्यवस्था कैसे बन सकेगी। जिससे कि आप अपने इष्टतत्त्व का कथन एवं पर के अनिष्टतत्त्व का खण्डन व्यवस्थित कर सकें ? अर्थात् इष्टानिष्ट तत्र व्यवस्था भी नहीं कर सकेंगे। 1 पूर्वम् । स्वानाश्रयद्रव्यान्तरलक्षणपरद्रव्येन्तर्भावत्वात् । (दि० प्र०) 2 सद्व्यधर्मस्य । (दि० प्र०) 3 कस्मिन् स्थाने किं वस्तु प्रवर्तेत । (दि० प्र०) 4 इति कालव्याख्या । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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