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अष्टसहस्री
[ कारिका १४
चशब्दात्सदवाच्यमेव' कथञ्चिदसदवाच्यमेव तदुभयावाच्यमेवेष्टं ते शासनमिति समुच्चीयते, 'प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी,' इति वचनात् । नययोगादिति वचनान्नयवाक्यानि सप्तैवेति दर्शयन्ति', ततोन्यस्य' भङ्गस्यासंभवात् । तत्संयोगजभङ्गस्यापि कस्यचित्तत्रैवान्तर्भावात् कस्यचित्तु पुनरुक्तत्वाद्विधिकल्पनाया' एव सत्यत्वात् तयैकमेव वाक्यमिति न मन्तव्यं, प्रतिषेधकल्पनायाः सत्यत्वव्यवस्थापनात्' । विध्येकान्तस्य निराकरणात् प्रतिषेधकल्पनैव सत्येत्यपि न सम्यक्, अभावकान्तस्य निराकरणात् । तदपेक्षयापि नैकमेव वाक्यं युक्तम् । सदर्थप्रतिपादनाय विधिवाक्यमसदर्थकथनार्थं तु प्रतिष
क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से द्रव्य नास्तिरूप है। क्रम से स्वपर द्रव्यादि की अपेक्षा से विवक्षितद्रव्य तृतीय भंगरूप है, युगपद् स्व-परद्रव्यादि चतुष्टय से विवक्षित द्रव्य 'स्यादवक्तव्य' चतुर्थ भंगरूप है। स्व चतुष्टय तथा स्वपरद्रव्यादि चतुष्टय की युगपद् विवक्षा करने पर 'स्यादस्ति चा वक्तव्यं च द्रव्यं' है। परद्रव्यादि चतुष्टय और स्व पर चतुष्टय की विवक्षा से छठा भंग है तथा स्व द्रव्यादि एवं पर द्रव्यादि और स्वपर चतुष्टय की अपेक्षा जब युगपत् हो जाती है, तब द्रव्य सातवाँ भंगरूप हो जाता है। यह कथन नहीं बनता हो ऐसी बात भी नहीं है, क्योंकि सभी वस्तु स्वरूप से अशून्य हैं, एवं पररूप से शून्य हैं उभयरूप से अशून्य शून्य रूप हैं युगपत् न कह सकने से अवाच्य हैं । भंगसंयोग की अर्पणा में 'अशून्या वाच्य' हैं, शून्यावाच्य हैं एवं अशून्यशून्यावाच्य हैं ।
__ "नययोगात्" इस वचन से नयवाक्य सात ही हैं इस प्रकार दिखाते हैं, क्योंकि उन सात से अन्य-अधिक भंग असम्भव हैं। उनके संयोग से उत्पन्न भंग भी उन्हीं किसी में अंतर्भूत हो जाते हैं। अर्थात् "स्यात्सदसदवक्तव्यरूप" भंग प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ भंगों के मध्य में परस्पर दो-दो और तीन के संयोग से उत्पन्न हुये हैं । कोई तो पुनरुक्त हैं अर्थात् तृतीय, पंचम, छठा और सातवाँ भंग दो-दो तीन अथवा चार के संयोग से बने हैं अतः पुनरुक्त हैं।
शंका-विधि कल्पना ही वास्तविक है अत: उस विधि कल्पना के द्वारा एक ही वाक्य बन सकेगा।
समाधान—ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि हमने "भावकांते" इस कारिका में प्रतिषेध कल्पना को भी सत्य रूप से व्यवस्थिापित किया है।
शंका-विधिरूप एकान्त कल्पना का निराकरण करने से प्रतिषेधकल्पना ही सत्य है।
1 द्रव्याथिकपर्यायार्थिकप्रमुखनवनयविवक्षया सप्तभंगात्मकं चेष्टं जीवादितत्त्वम् । एकान्तत्वेन । कथञ्चित् । (दि० प्र०) 2 च शब्दात्तत्त्रयमेव समुच्चीयत इत्यत्र ग्रन्थकर्षभिप्रायञ्च सूचयन्ति नययोगादिति । (दि० प्र०) 3 स्वामीसमन्तभद्राचार्याः । (दि० प्र०) 4 सप्तवेति नियमः कुत इत्यत आहुस्ततोन्यस्येति । (दि० प्र०) 5 वचनविकल्पस्य । (दि० प्र०) 6 हेतुत्रयस्यापि सप्तवेत्यादि साध्यम् । (ब्या० प्र०) 7 सदेव । (ब्या० प्र०) 8 ब्रह्म । न सप्तधा । (ब्या० प्र०), नेकमेव इति पा० । (दि० प्र०) 9 अग्रे । (दि० प्र०) 10 असदेव । (ब्या० प्र०)
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