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अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ २६५ चेत्तावद्धा भिद्येत, न हि भिन्नादभिन्नमभिन्न नामेति स्वयमभिधानात् । तथा च तत्प्रबोधात्कथं दर्शनावग्रहादिष्वेकमनुसन्धानज्ञानमुत्पद्येत ? यदि पुनस्तेभ्यः कथञ्चिदभिन्ना' वासनानुमन्यते तद्धेतुस्तदा अहमहमिकयात्मा विवर्ताननुभवन्ननादिनिधनः स्वलक्षणप्रत्यक्षः सर्वलोकानां क्वचिच्चित्रवित्तिक्षणे नीलादिविशेषनिर्भासवदात्मभूतान् परस्परतो विविक्तान्सहक्रमभाविनो गुणपर्यायानात्मसात्कुर्वन् सन्नेव सिद्धः, तस्यैव वासनेति नामान्तरकरणात् । तदेकत्वाभावे नीलादिविशेषनियतदर्शननानासंतानसंवेदनक्षणवच्चित्र संवेदनं न स्यात् । 12कमवत्तिसुखादीनामिव दर्शनावग्रहादीनामेकसंतानिपतितत्वादनुसंधानमनननिबन्धनत्वमनुम
दूसरे ज्ञान से सम्बद्ध रहता है, इसे ही वासना कहते हैं, अतः आत्मा को नित्य न मानने पर भी बासना के प्रबोध से अनुसंधान होता रहता है, कोई बाधा नहीं आती है।
जैन -- तब पुन: वह अनुसन्धानवासना उस प्रत्यभिज्ञान के द्वारा विषय किये जाने वाले दर्शन आदि से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न कहें. तब तो सन्तानान्तर में वर्तमान दर्शन अवग्रहादिकों की तरह स्वसन्तान में रहे हुये अवग्रहादिकों में भी वह अनुसन्धान को उत्पन्न नहीं कर सकेगी, क्योंकि उन दोनों में कोई विशेषता नहीं है। यदि आप कहें कि वह अनुसन्धानवासना दर्शन एवं अवग्रहादिकों से अभिन्न है, तब तो वह स्वयं दर्शन, अवग्रहादि के समान उतने ही जावेगी, क्योंकि भिन्न-भिन्न दर्शन, अवग्रहादि से अभिन्न-अभिन्न ही है, ऐसा आप बौद्धों ने स्वयं कहा है । ऐसी स्थिति में वह (वासना) अनेक रूप से वर्तमान दर्शन अवग्रहादिकों में एक अनुसंधान ज्ञान की उत्पादक कैसे हो सकेगी ?
यदि आप कहें कि उन दर्शन अवग्रहादि से वह वासना कथञ्चित् (अशक्यविवेचनतया) अभिन्न है और वही उन ज्ञानों में अनुसंधान का हेतु है, तब तो अहमहमिकया- अहं-अहंपने से यह आत्मा दर्शन आदि पर्यायों का अनुभव करते हये, अनादिनिधन है और सभी लोगों में स्वसंवेदनरूप से प्रत्यक्ष है जैसे कि चित्रज्ञानक्षण नीलादिविशेष निर्भास का अनुभव करते हुये वह चित्रज्ञान सभी जनों को स्वलक्षण प्रत्यक्ष है। उसी प्रकार से यह आत्मा भी सहभावीगृण और क्रमभावीपर्यायों को आत्मसात करते हुये सतरूप से सिद्ध हो है। उसो आत्मा को ही आपने 'वासना' यह भिन्न नामकरण कर दिया है।
। तथाविधवासनाज्ञानात् । (दि० प्र०) 2 दर्शनादिभ्यः । (दि० प्र०) 3 रूपेण तत्त्वात्तयोरभेदः । एकानेकरूपत्वात तयोर्भदः । (दि० प्र०) 4 पर्यायान् । (दि० प्र०) 5 स्वात्मा लक्ष्यते येन तत्स्वलक्षणं स्वसंवेदनं तेन प्रत्यक्षो ग्राह्यः । (दि० प्र०) 6ज्ञान । (दि० प्र०) 7 आकारानात्मभूतान स्वस्वरूपभूतान परस्परतो विवक्तानात्मसात् चैत्रवित्तिक्षण: स्वलक्षण प्रत्यक्षः सर्वलोकानां प्रसिद्धो यथा तथेतिभाव। (दि० प्र०) 8 नीलादिविशेषनिर्भासा यथात्मभूता परस्परतो विविक्तास्तथान्यभूतान परस्पर तोविविक्तानिति संबन्धः । (दि० प्र०) 9 आत्मद्रव्यापेक्षया । चित्रवित्तिक्षणेप्येकत्वानभ्युपगमे चित्रसंवेदनं न स्यात। नीलपीतादिविशेषविनियतनानासन्तान ज्ञानवत । आत्मद्रव्याभावे । (दि० प्र०) 10 विशेष नियमदर्शनाना नानासन्तान । इति पा० । (दि० प्र०) 11 तदेवेदमित्यनुसन्धानज्ञानरूपम् । (दि० प्र०) 12 सौगतः । (दि० प्र०)
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