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अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ ३०५ विरोधात् । तत्प्रतिभासस्याप्यभेदे, स एव प्रत्यक्षतराविशेषप्रसङ्गः । तथानभिधेयत्वेपि' सत्येतरयोरभेदः स्यात् यत्सत्तत्सर्वमक्षणिक, क्षणिके क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधादित्यादेरिव वाक्यस्य यत्सत्तत् क्षणिकमेव, नित्ये क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियानुपपत्तेरित्यादेरपि वाक्यस्यासत्यत्वप्रसङ्गाद्विपर्ययानुषङ्गाद्वा, सर्वथार्थासंस्पशितत्वाविशेषात्, कस्यचिदनुमानवाक्यस्य कथञ्चिदर्थसंस्पशित्वे सर्वथानभिधेयत्वविरोधात् । सोयं सौगतः स्वपक्षविपक्षयोस्तत्त्वातत्त्वप्रदर्शनाय यत्किचित्प्रणयन् वस्तु सर्वथानभिधेयं प्रतिजानातीति किमप्येतन्महाद्भुतं, सर्वथाभिधेयरहितेनानुमानवाक्येन' सत्यत्वासत्यत्वप्रदर्शनस्य प्रणेतुमशक्तेः,
के जो भेद हैं, उसके कारण में विरोध आ जावेगा । यदि उस स्पष्ट और अस्पष्ट प्रतिभास में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष के साथ अभेद स्वीकार करोगे, तब तो वो ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष में समानता का प्रसंग आ ही जावेगा। और उस प्रकार से अनभिधेय-अवाच्य स्वीकार कर लेने पर तो सत्य और असत्य में भेद नहीं सिद्ध हो सकेगा। उसी का स्पष्टीकरण
“यत्सत्तत्सर्वमक्षणिक" जो सत् है वह सभी अक्षणिक-नित्य है क्योंकि क्षणिक में क्रम से अथवा युगपत् अर्थक्रिया नहीं बन सकती है । इत्यादि वाक्य के समान ही 'यत्सत्तक्षणिकमेव' जो सत् है वह क्षणिक ही है क्योंकि नित्य में क्रम से अथवा युगपत् अर्थक्रिया नहीं बन सकती है इत्यादि वाक्य भी असत्य सिद्ध हो जावेंगे। अथवा विपर्यय का प्रसंग आ जावेगा, यथा-नित्य में क्षणिकपने का प्रसंग हो जावेगा, अथवा क्षणिक में नित्यत्व का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि सत्य और असत्य दोनों ही शब्द सर्वथा अर्थ का स्पर्श करने वाले नहीं हैं, अर्थात् दोनों ही शब्द समानरूप से अवाच्य हैं।
बौद्ध-मेरा सिद्धान्त यह है कि कोई अनुमान वाक्य कथंचित्-किसी रूप से अर्थ का स्पर्शसम्बन्ध करते हैं।
जैन-तब तो शब्द सर्वथा अनभिधेय हैं, इस कथन में विरोध आ जाता है और इस प्रकार से आप बौद्ध "स्वपक्ष को वास्तविक और विपक्ष - परमत को अवास्तविक बतलाने के लिये यत्किचित् वाक्य को बोलते हुए भी सभी वस्तुओं को सर्वथा अनभिधेयरूप (अवाच्यरूप) स्वीकार करते हैं यह कुछ एक महान् आश्चर्य की बात प्रतीत हो रही है। क्योंकि सर्वथा वाच्यपने से रहित ऐसे अनुमान वाक्य से सत्य असत्य का निर्णय देना तो सर्वथा अशक्य ही है। कहा भी है
1 शब्दाद्वैतवादी। (दि० प्र०) 2 पुनः सौगतं प्रत्याहुस्तथेति । वस्तुनः। संभावनायाम् । वाक्ययोः। (दि० प्र०) 3 बाक्यार्थः । (ब्या० प्र०)
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