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अष्टसहस्री
भावाविच्छित्तेः । अतः ' ' कथञ्चित्सदेवेष्टं जीवादि तत्त्वं, सकल बाधकाभावात् ।
[ सांख्यः सर्वं वस्तु सद्रूपमेव मन्यते तस्य विचारः ]
तर्हि सदेव' सर्वं जीवादिवस्तु, न पुनरसदिति चेन्न, सर्वपदार्थानां परस्परमसंकरप्रतिपत्तेरसत्त्वस्यापि सिद्धेः, जीवाजीवप्रभेदानां 'स्वस्वभावव्यवस्थितेरन्यथानुपपत्तेः । न केवलं जीवाजीवप्रभेदाः सजातीयविजातीयव्यावृत्तिलक्षणाः, किन्तु बुद्धिक्षणेपि क्वचिद्ग्राह्यग्राहकयोः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणत्वादन्यथा स्थूलशवलाव
सितादिनिर्भासांशपरमाणुसंवित्तयोपि
उनका कहना है कि तुम लोग 'आत्मा' को ही 'वासना' इस भिन्न नाम से मान लेते हो, अतएव जिसमें क्रम से सुख - दुःख आदि का एवं अवग्रह आदि ज्ञानों का अनुभव हो रहा है, वह आत्मा कथंचित् सत्रूप ही है । द्रव्यदृष्टि से शाश्वत नित्य ही है, ऐसा समझना चाहिये ।
[ सांख्य सभी वस्तुओं को सत्रूप ही मानता है उस पर विचार 1 सांख्य- तब तो सभी जीवादि वस्तु सत्रूप ही हैं, असत् रूप कुछ है ही नहीं ।
[ कारिका १४
जैन- नहीं, सभी पदार्थों में परस्पर संकरदोष न आ जावे एवं असंकर का ज्ञान भी पाया जाता है, अतएव असत्त्व धर्म की भी सिद्धि है क्योंकि जीव अजीव के प्रभेद सभी अपने-अपने स्वभाव में व्यवस्थित हैं इस बात की अन्यथानुपपत्ति है अर्थात् जीव अजीव आदि में असत्त्व धर्म के बिना परस्पर में भेद ही सिद्ध नहीं हो सकेगा ।
अतएव केवल जीव और अजीव के भेद प्रभेद ही सजातीय विजातीय व्यावृत्तिलक्षणवाले नहीं हैं किन्तु बुद्धिक्षण बौद्धाभिमत चित्रज्ञानक्षण में भी ग्राह्य-ग्राहकभाव एवं श्वेत पीतादि प्रतिभास अंश परमाणु और संवित्ति भी परस्पर में परिहारस्थितिलक्षण वाले हैं, अन्यथा अवयव बहुत्व का अभाव कहने पर स्थूल एवं शबल (चितकबरा) के अवलोकन का अभाव हो जावेगा जैसे कि एकांश में परस्परपरिहारस्थितिलक्षण का अभाव रहता है । ग्राह्य ग्राहकभाव, श्वेत, पीतादि प्रतिभास, अवयव, परमाणु और ज्ञान सभी यदि परस्पर में सर्वथा अव्यावृत्त - परस्पर में एक-दूसरे से भिन्नपृथक् नहीं हैं तब तो सभी को एक परमाणुस्वरूपता की आपत्ति आ जावेगी, परन्तु एकपरमाणु स्थूलरूप से अथवा चित्र-विचित्ररूप से दिखता ही नहीं है और भ्रम का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि अणु तो अत्यन्त सूक्ष्म माना गया है तथा च अणु संवित्तियों की परस्पर में सजातीय-विजातीयव्यावृत्ति होने पर सम्पूर्ण चेतन और इतर नोलादि प्रतिभास क्षणरूप परिणाम के अंश विशेष परस्पर में भिन्नभिन्न रूप से ही सिद्ध हैं क्योंकि अपने-अपने स्वभाव का स्वभावांतर से मिश्रण नहीं हो सकता है ।
1 अवग्रहादिषु सदादिस्वभावसंकरं समर्थ्य तद्दृष्टान्तावष्टंभेन समस्तचेतनाचेतन विवर्तेषु सदादिस्वभावसंकरः समर्थितो यत: । ( दि० प्र० ) 2 संग्रहनयापेक्षया । ( दि० प्र० ) 3 वर्तमानम् । ( दि० प्र० ) 4 भेदः । घटरूपे पटस्वरूपाभावात् । ( व्या० प्र० ) 5 रूप । ता । ( ब्या० प्र० ) 6 किन्तु विशेषोस्ति । ज्ञानार्थे क्वचित् । ग्राह्यग्राह्कयोः सितादिनिर्भासांशपरमाणुसंवित्तयः । पक्षः परस्परव्यावृत्तिलक्षणा भवन्तीति साध्यो धर्मः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणत्वात् । ( दि० प्र०)
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