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अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ २९७ प्रागभूत्तत्रैव विषादो द्वेषो भयादिषु वर्तते, अहमेव च हर्षवानासं', संप्रति विषादादिमान् वर्ते नान्य इति क्रमतश्चित्रप्रतिपत्तिरबाधा'। ततो जीवः सन्नेव । एवं च यथैकत्र समनन्तरावग्रहादिसदादिस्वभावसंकरपरिणामस्तथैव सर्वत्र चेतनाचेतनेषु संप्रत्यतीतानागतेषु, 'तत्स्व
बौद्ध - सन्तानीचित्त क्षणों में भेद परिणाम ही है। अभेदपरिणाम नहीं है अन्यथा संकरदोष का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा।
जैन-नहीं, जिस स्वरूप से उन सन्तानी में अभेद है, आत्मा में उन सद्रव्य-चेतनत्व आदि के साथ संकर-मिश्रण इष्ट ही है। यदि सन्तानी-आत्मा का उन सत्, द्रव्य, चेतनत्व आदि से भी संकर न मानोगे, तब तो हर्ष विषाद आदि नाना प्रकार के ज्ञानों का भी आत्मा में अभाव हो जावेगा, किन्तु वह हर्ष विषादादि का ज्ञान एक ही जीव में देखा जाता है जहाँ मुझमें पहले हर्ष हुआ था उसी आत्मा में इस समय मुझे द्वेष अथवा भयादि हो रहे हैं और मैं ही हर्षवान् था, इस समय मैं ही विषादिमान हो रहा हूँ और अन्य कोई नहीं है इत्यादिरूप से क्रम से अबाधित नानाप्रकार का ज्ञान पाया जाता है।
अतएव जीव सत्रूप हो है । इस प्रकार से जीव का सत्त्व स्वीकार कर लेने पर जिस प्रकार से एक जीव में समनंतर - अव्यवहित अवग्रहादि ज्ञान एवं सदादि स्वभावों का संकर परिणाम है, उसी प्रकार से भूत, वर्तमान और भविष्यत तीनों कालों में सर्वत्र चेतन और अचेतन द्रव्यों से अवग्रह आदि एवं सत् आदि उन-उन योग्य स्वभावों को अविच्छित्ति है। अतएव जीवादि-तत्त्व कथञ्चित सतरूप ही इष्ट हैं, ऐसा इष्ट-जिनेन्द्र भगवान् का शासन है।
भावार्थ-बौद्ध का कहना है कि जीव में दर्शन, अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुतज्ञानरूप से क्रम से जो ज्ञान होता हुआ देखा जाता है, वह सभी परस्पर में भिन्न-भिन्न रूप ही है, क्योंकि इन सभी ज्ञानों के साथ अन्वय सम्बन्ध रखने वाली कोई एक आत्मा नहीं है, अत: जीवादिद्रव्यों को सतरूप ही सिद्ध करना गलत है, किन्तु जैनाचार्यों का कहना है कि जीवादिद्रव्य का अस्तित्व तो प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है। मैंने जिसका सत्तामात्र अवलोकन किया है, उसी को वर्ण संस्थान आदि आकार से जानकर विशेष जानने की इच्छा करता हूँ। मैं ही निश्चितरूप से ईहा के बाद अवायज्ञान से पदार्थ को निश्चित करके धारणारूप से कालांतर में नहीं भूलता हूँ। मैं धारणा किये गये विषय का कालांतर में स्मरण करता हूँ एवं मुझ ही उसे देखकर भूतपूर्व में उसको देखा था उसका स्मरण करके जोड़रूप ज्ञान से प्रत्यभिज्ञान होता है इत्यादि रूप से यदि आत्मा एक न हाव ताकालातर का स्मरण किसका होगा ! __इस आपत्ति पर बौद्ध ने 'वासना' नाम को अपनाया है कि जिससे वे स्मति, प्रत्यभिज्ञान आदि को घटित कर देते हैं, किन्तु जैनाचार्यों ने इनकी इस 'वासना' को वासनारूप ही सिद्ध कर दिया है,
1 अहमभवम् । (दि० प्र०) 2 बसः । (दि० प्र०) 3 यत एवम् । (दि० प्र०) 4 पदार्थेषु । (दि० प्र०) 5 अवग्रहादि सदादि । (दि० प्र०)
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