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[ कारिका १४
तमिति चेत्तर्हि संततिरात्मैव । तथा क्रमवृत्तीनां सुखादीनां मतिश्रुतादीनां वा तादात्म्यविगमकान्ते संततिरनेक पुरुषवन्न स्यात् । सुखादिमत्यादीनां नैरन्तर्यादव्यभिचारिकार्यकारणभावाद्वास्यवासकभावाच्चापरामृष्टभेदानामेका संततिः, न पुनरनेकपुरुषे, तदभावादिति चेत्तर्हि ' ' नैरन्तर्यादेरविशेषात्संतानव्यतिकरोपि किन्न स्यात् ' ? न हि नियामक: कश्चिद्विशेषः, अन्यत्राभेदपरिणामात् । संतानिनां भेदपरिणाम एव नाभेदपरिणाम:, संकरप्रसङ्गादिति चेन्न येनात्मना तेषामभेदस्तेन सद्रव्यचेतनत्वादिना संकरस्येष्टत्वात् तेनायसंकरे" "हर्षविषादादिचित्रप्रतिपत्तेरयोगात् " । अस्ति च सैकत्रापि विषये यत्र मे हर्षः
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अष्टसहस्त्री
यदि दर्शन, अवग्रहादिकों का आत्मा के साथ एकत्व नहीं है ऐसा आप अभाव स्वीकार करेंगे तब तो जैसे नोलादि विशेषों में नियत दर्शन-ग्रहण है जिनका ऐसे वे और उसी प्रकार से नानासंतान संवेदनक्षणों में संवेदन नहीं होगा, वैसे ही आत्मा और दर्शनादि में एकत्व का अभाव कहने से आत्मा भी सिद्ध नहीं होगा और वे दर्शन आदि भी सिद्ध नहीं होंगे ।
बौद्ध - क्रमवर्ती सुखादि के समान दर्शन अवग्रह आदि भी एक संतानी में पाये जाते हैं, अत: अनुसंधान मनन ( जो मैं सुखी था वो ही मैं दुःखी हूँ इत्यादि) का कारण हमने संतति को माना है ।
जैन ---तब तो वह सन्तति आत्मा ही तो है और इस प्रकार क्रम से होने वाले सुख-दु:ख आदि अथवा मति श्रुत आदिकों का आत्मा के साथ एकान्त से तादात्म्य स्वीकार न करने पर अनेकपुरुष के समान सन्तति भी सिद्ध नहीं हो सकेगी।
बौद्ध-सुखादि और मतिश्रुतादि निरन्तर पाये जाते हैं, उनमें काल का व्यवधान नहीं है एवं वे अव्यभिचारी कार्यकारण भाव वाले हैं। तथा वास्य- वासकभाव - समर्प्य - समर्पकभाव वाले होने से अज्ञातभेद वाले हैं, उन अपरामृष्ट भेदवाले सुख-दुःख आदि एवं मति श्रुति आदिकों की एक सन्तति है न कि पुनः अनेकपुरुष में एक सन्तति है, क्योंकि उन अनेक पुरुषों में कार्यकारणभाव एवं वास्य- वासकभाव का अभाव है ।
जैन - तब तो सुगत और इतर के चित्त क्षणों में निरन्तरपना आदि समानरूप से है, अतः सन्तान व्यतिकर -- एक सन्तान - आत्मा में दूसरी आत्मा का मिश्रण भी क्यों नहीं हो जावेगा ? क्योंकि अभेद परिणाम को छोड़कर अन्य कोई नियामकविशेष तो पाया नहीं जाता है ।
1 भेदकान्ते । (ब्या० प्र० ) 2 न स्यादिति पूर्वभाष्ये प्रोक्तमेवात्र संवंध्यमानं प्रतिपत्तव्यम् । ( दि० प्र० ) 3 स्याद्वादी आह । हे सौगत ! तकत्र वस्तुनि नैरन्तर्य्यादेरिति कार्यकारणाविच्छेदात्सुखे दुःखं दुःखे सुखमिति लक्षणः सन्तानव्यतिकरो दोषः किं न स्यादपितु स्यात् । ( दि० प्र०) 4 प्रतिपादकप्रतिपाद्यमत्यादीनाम् । (ब्या० प्र० ) 5 नन्वपरसन्तानवत्तिसुखादिविवर्त्तानां नैरन्तर्यादिकं स्वस्वसन्तान नियतमेवेति नियमाभावात् । ( ब्या० प्र० ) 6 उभयोरेकत्वम् । (ब्या० प्र०) 7 वर्जयित्वा । ( दि० प्र० ) 8 अन्यथा । ( ब्या० प्र० ) 9 तेन सद्रव्यचेतनादिना कृत्वा भेदे सति हर्षविषादाद्यनेकज्ञानस्याघटनात् । ( दि० प्र० ) 10 चासौ । ( ब्या० प्र० ) 11 अनुसन्धानप्रत्ययस्य । ( दि० प्र०)
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