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अष्टसहली
अवक्तव्य के खण्डन का सारांश
बौद्ध-- निर्विकल्पदर्शन स्वलक्षण को विषय करता है "स्वलक्षणं अनिर्देश्य" स्वलक्षण अनिर्देश्यअवाच्य है । निर्विकल्प में शब्द का संसर्ग नहीं है । सविकल्पप्रत्यक्ष नामजात्यादि शब्दों के संसर्ग से सहित है।
[ कारिका १३
जैन -- जब विकल्प में शब्दों का संसर्ग है तब विकल्प के उत्पादक निर्विकल्प- प्रत्यक्ष में भी शब्द का संसर्ग मानना पड़ेगा, अन्यथा उसी निर्विकल्प से ही विषय किये गये बाह्य अथवा अंतरंग पदार्थ अविषय किये हुये के समान ही रहेंगे, क्योंकि नाम-शब्द और उसके अंश - स्वर, व्यञ्जन का निश्चय न होने से नाम के अर्थ का निर्णय भी कभी नहीं हो सकेगा, अव्यवसायात्मक दर्शन के द्वारा जाने गये पदार्थ भी नहीं जाने हुये के सदृश ही हैं अतएव सकल प्रमाणों का अभाव हो जावेगा, कारण प्रत्यक्षप्रमाण के अभाव में अनुमानप्रमाण नहीं हो सकता है ।
स्वलक्षण का लक्षण - सम्पूर्ण प्रमाणों के अभाव में प्रमेयरूप पदार्थों का भी अभाव हो जाने से यह सारा जगत् प्रमाण- प्रमेय से रहित - शून्यरूप ही हो जावेगा ।
यदि आप बौद्ध यह कहें कि जो अर्थक्रियाकारी है, परमार्थसत् है, वही स्वलक्षण है, उससे भिन्न जो अर्थक्रियाकारी नहीं है काल्पनिक संवृतिरूप है, वह सामान्य
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यह कथन भी ठीक नहीं है । स्व-असाधारणरूप से लक्षित सामान्य भी स्वलक्षणरूप है, जैसे विशेष | विशेष विसदृश परिणामात्मक है, वह सामान्य में असंभवी है एवं सामान्य भी विशेष में असंभवी, सदृश परिणामात्मकरूप अपने स्वलक्षण से जाना जाता है । जैसे विशेष अपनी व्यावृत्तिज्ञानलक्षण अर्थक्रिया को करता है, वैसे सामान्य भी अपनी अन्वय ज्ञान लक्षण अर्थक्रिया को करता है । अतएव स्वलक्षणरूप से विशेष और सामान्य में अन्तर नहीं है, फिर भी आप बौद्ध सामान्य का शब्द संसर्गित विकल्पज्ञान से निश्चय करते हुये भी उस सामान्य से अभिन्न स्वलक्षण का निश्चय न करें, तो आप बुद्धिमान् कैसे कहे जावेंगे ?
यदि आप कहें कि स्वलक्षण न तो द्रव्य है, न उसका परिणाम है, न सामान्य है, न विशेष है, तब वह स्वलक्षण है क्या ? यदि कहो कि इन सभी से भिन्न ही एक चीज है, जिसका शब्द के द्वारा निर्देश नहीं होता है, अतएव वह "अवाच्य" है, निर्विकल्पबुद्धि में ही मात्र झलकता है । तब तो आपने जात्यंतररूप सामान्य विशेषात्मक वस्तु को ही स्वलक्षण कह दिया है, क्योंकि परस्परनिरपेक्ष सामान्य, विशेष एवं द्रव्य गुणों से भिन्नरूप ही एक जात्यंतर वस्तु उभयात्मक से ही प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय है । अतएव सामान्य और विशेष में अभेद होने से शब्द भी सामान्य के समान स्वलक्षण का निश्चय करता हुआ प्रतीत होता है ।
इसलिए किंचित् भी प्रमेय अवाच्य नहीं है, किन्तु श्रुतज्ञान के द्वारा परिच्छेद्य ही है, क्योंकि शब्द से योजित वस्तु श्रुतज्ञान का विषय है । कथंचित् सामान्य की अपेक्षा से वस्तु वाच्य है, और अर्थपर्याय की अपेक्षा से अवाच्य है किन्तु सर्वथा अवाच्य नहीं है ।
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