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अवक्तव्य एकांत का खण्डन ] प्रथम परिच्छेद
[ २८१ प्रसङ्गन, रूपादिस्वलक्षणे शब्दाभावादवाच्यमेव तदिति ब्रुवाणस्य 'प्रत्यक्षर्थस्याभावात्तस्याज्ञेयत्वप्रसक्तेः समर्थनात्, रूपाद्यर्थस्य कथञ्चिज्ज्ञेयत्वेभिलाप्यत्वस्यापि साधनात् प्रकृतार्थपरिसमाप्तौ प्रसङ्गस्य निष्प्रयोजनत्वात् पर्याप्तं प्रसङ्गन । तस्मादवाच्यतकान्ते यदवाच्यमित्यभिधानं तइसमञ्जसं, स्वलक्षणमनिर्देश्यमित्यादिवत्स्ववचनविरोधात् तदप्यसद्, यदसतः समुदाहृतमिति प्रतिपादनात् । यथैव हि स्वलक्षणमनिर्देश्यमित्यवाच्यतैकान्ते वक्तुमशक्यं तथा प्रत्यक्षं कल्पनापोढमित्यपि, प्रत्यक्षेभिलापसंसर्गाभावे विकल्पानुत्पत्तिप्रसङ्गस्य निवेदितत्वात्', तत्सद्भावे सविकल्पकत्वसिद्धेः ।
से स्वलक्षण अवाच्य है, उस बौद्ध के यहाँ भी निविकल्पप्रत्यक्ष में अर्थ का अभाव होने से वह अज्ञेयपने को प्राप्त हो जावेगा, ऐसा समर्थन कर दिया है ।
यदि रूपादि अर्थ को कथंचित् ज्ञेयरूप से स्वीकार करोगे तब तो उस-उस अर्थ को अभिलाप्य भी सिद्ध करना होगा और पुनः हमारा जो प्रकृतार्थ अवाच्यतेकांत का खण्डन है उसकी परिसमाप्ति हो जाने पर प्रसंग में प्राप्त और भी दूषण निष्प्रयोजनीभूत ही हैं, इसलिये अब इस प्रसंग से बस होवे।
इसलिये "आवाच्यतैकांत में" जो "अवाच्य" यह कथन है वह असमञ्जस ही है। जैसे कि "स्वलक्षण अनिर्देश्य है" इत्यादि वचन असमञ्जस हैं क्योंकि उसमें स्ववचन से ही विरोध आ जाता है। अतएव यह कथन भी असत् ही है क्योंकि आपने उदाहरण भी असत् का दिया है, ऐसा हमने प्रतिपादन कर दिया है कारण जैसे “स्वलक्षण अनिर्देश्य है" ऐसा कथन भी अवाच्यतैकांतपक्ष में अशक्य है । उसी प्रकार से "प्रत्यक्ष भी कल्पनापोढ़ है" यह कहना भी अशक्य ही है, क्योंकि प्रत्यक्ष में शब्द के संसर्ग का अभाव मानने पर विकल्प की उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी, ऐसा प्रतिपादन कर दिया गया है, क्योंकि शब्द के संसर्ग के सद्भाव में ही सविकल्पपने की सिद्धि देखी जाती है।
1 अर्थस्य । (दि० प्र०) 2 अवाच्यत्वनिषेधावतारेण । (ब्या० प्र०) 3 अवाच्यतैकान्तम् । (ब्या० प्र०) 4 प्रत्यक्ष कल्पनापोढम् । (ब्या० प्र०) 5 अवाध्यतैकान्ते वक्तुमशक्यम् । (दि० प्र०) 6 अवाच्यतैकान्ते स्वलक्षणमनिर्देश्य प्रत्यक्ष कल्पनापोढमितिद्वयं वक्तुमशक्यमित्यत्रोपपत्तिमाहः प्रत्यक्षेऽभिलापेत्यादि । (दि० प्र०) 7 विकल्पानुत्पत्ती च स्वलक्षणमनिर्देश्यं प्रत्यक्ष कल्पनापोढमितिद्वयं वक्तूमशक्यमेवेतिभावः । (दि० प्र०) 8 प्रत्यक्षस्य । तस्मात् । का। (दि० प्र०)
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